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________________ ऐसा शाही फरमान हो जाना चाहिये कि जिस से कोई भी मनुष्य, उन तीर्थों पर किसी प्रकार का अनुचित दखल और अयोग्य काम न करने पावे।" कहने की। आवश्यकता नहीं कि इस अर्जी के मुताबिक, शाही फरमान के लिखे जाने में कुछ भी विलम्ब हुआ हो । बादशाह ने अपने फरमान में केवल गुजरात के तीर्थों के विषय ही में नहीं परंतु बंगाल और राजपूताना में भी समेतशिखर (पार्श्वनाथ-पहाड) और केसरीया (धूलेव) वगैरह जितने जैनश्वेताम्बरसंप्रदाय के तीर्थ हैं उन में से किसी पर भी कोई मनुष्य अपना दखल न करे। और कोई जानवर वगैरह न मारे तथा ये सब स्थान जैनाचार्य श्रीहीरविजयसूरि । को सौंपे गये हैं; ऐसा लेख कर दिया;- (देखो फरमान - नं.२ रा) सूरिमहाराज, अकबर की अनुमति पा कर तथा इस फरमान को ले कर, अपने शिष्यों के साथ गुजरात की तरफ रवाना हुए। ऊपर लिखा गया है कि - जगद्गुरु ने, फतहपुर से चलते समय बादशाह की इच्छानुसार श्रीशांतिचन्द्र उपाध्याय को वहीं पर- अकबर के दरबारही में - रख दिये थे। उसी दिन से उपाध्यायजी निरंतर बादशाह के पास जाने लगे और विविध प्रकार का उसे सदुपदेश देने लगे। प्रसंग वश और भी अनेक प्रकार का वार्तालाप होने लगा । शांतिचन्द्रजी बडे भारी विद्वान् और एक ही । साथ एक सौ आठ अवधान करने की अद्भुत शक्ति धारण करनेवाले अप्रतिम प्रतिभावान् थे । उन्हों ने, इस के पहले, अपनी विद्वता और प्रतिभा द्वारा। राजपूताना के अनेक राजाओं का मनोरंजन किया था । बहुत से विद्वानों के साथ वाद-विवाद कर जयपताका प्राप्त की थी। ईडर- गढ के महाराय श्रीनारायण की सभा में वहां के दिगंबर भट्टारक वादीभूषण के साथ विवाद कर। उसे पराजित किया था । वागड के, घटशिल नगर में, वहां के अधिपति और। जोधपुर के महाराज श्रीमल्लदेव के भ्रातृव्य, राजा सहसमल्ल की सन्मुख, गुणचंद्र नामक दिगंबराचार्य को भी परास्त किया था । इस तरह अनेक नृपतियों को उन्हों ने शास्त्रार्थ और शतावधानादि द्वारा अपने प्रति सद्भाव धारण करने वाले बनाये थे। अकबर भी उन की विद्वत्ता से बडा खुश हुआ। ज्यों ज्यों उस का परिचय उपाध्यायजी से अधिक होता गया त्यों त्यों वह उन पर विशेष अनुरक्त होता गया। बादशाह के सौहार्द और औदार्य से प्रसन्न हो। AAAAAAAAAAAAA MANA Amalnera. - ALMAAKARE - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016007
Book TitleKruparaskosha
Original Sutra AuthorShantichandra Gani
AuthorJinvijay, Shilchandrasuri
PublisherJain Granth Prakashan Samiti
Publication Year1996
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size8 MB
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