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________________ - - - - - - - - - - ILE व्यय किया।शाह दुज्जणमल्ल ने भी एक वैसा ही दूसरा प्रतिष्ठा महोत्सव किया। उस साल का- संवत् १६४० का- चातुर्मास्य सूरीश्वरने वहीं व्यतीत किया। पर्युषणा के दिनों में शाही हुक्म से सारे राज्य में, क्या हिंदू और क्या मुसलमान ? सभी के लिये जीव वध के मनाई के ढंढोरे पीटे गये । अशक्य जैसी बात का होना देख कर सभी लोगों को आश्चर्य हुआ । जैनधर्म की करुणा का प्रचंड प्रवाह, कुछ देर के लिये, सर्वत्र फैल गया। असंख्य प्राणियों को अभय-दान मिला । जैन प्रजा को फिर एक बार परमाहत महाराजाधिराज श्रीकुमारपाल का स्मरण हो आया। J, चतुर्मासी की समाप्ति अनंतर सूरीश्वर वहां से बिदा हुए । बादशाह की । | इच्छा से शांतिचन्द्र उपाध्याय वहीं रक्खे गये । जगद्गुरु आगरे हो कर मथुरा गये। और वहां के प्राचीन जैन-स्तूपों की यात्रा की। मथुरा से गवालियर पहुंचे। वहां के गोपगिरि-पर्वत पर आई हुई विशाल-काय और भव्याकृति जिनमूर्ति के, जो "बावनगजा' के नाम से प्रसिद्ध है, दर्शन किये । गवालियर से। जगद्गुरु अलाहाबाद पधारे और सं. १६४१ का वर्षा-समय वहीं बिताया । शीत-काल में वहां से प्रयाण कर, रास्ते में ठहरते और असंख्य मनुष्यों को ।। । सदुपदेश देते पुनः आगरा आये। सं. १६४२ के वर्षाकीय चार महिने वहीं ठहरे। सूरिजी के उपदेश से लोगों ने अनेक धर्मकृत्य और पुण्य कार्य किये जिस से जैन धर्म की बडी प्रभावना हुई । हजारों हिन्दू और मुसलमानों ने मांसाहार और मद्यपान का त्याग किया। सूरि महाराज की अवस्था इस समय कोई ६० वर्ष की थी। शरीर-स्थिति दिन प्रतिदिन शिथिल होती देख उन्हों ने वापस गुजरात में जाना चाहा और वहां के शत्रुजय, गिरनार आदि पवित्र तीर्थों की यात्रा कर, वहीं पर किसी पावन स्थान पर शेष जीवन व्यतीत करना चाहा । सूरीश्वर ने अपनी यह इच्छा बादशाह से जनाई और गुजरात में जाने की इजाजत मांगी। साथ में आपने एक यह अर्ज भी बादशाह से कराई कि "गुजरात में शत्रुजय, गिरनार, आबू, तारंगा वगैरह जो हमारे बडे पवित्र तीर्थ हैं उन पर, कितनेक अविचारी | मुसलमान, हम लोगों के दिल को दुःख पहुंचे वैसा हिंसादि कृत्य कर, तीर्थ की पवित्रता को भ्रष्ट करते रहते हैं और उन पर अपना अनुचित हस्तक्षेप करते रहते हैं । इस लिये बादशाह की हुजूर में अर्ज है कि इन तीर्थों के विषय में एक । AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAmAbKAALAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAILAnandana LALIMIRALAIMADIRAKHANALLAAAAAdmAJAKAAMANASALALARIAANAALAAMRAANAALAAAAAAAAAAALAADALA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016007
Book TitleKruparaskosha
Original Sutra AuthorShantichandra Gani
AuthorJinvijay, Shilchandrasuri
PublisherJain Granth Prakashan Samiti
Publication Year1996
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size8 MB
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