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________________ MANIMHAMMARRIMAAMIRITAIWITTIMMITTITLEMAMALINITAMITTINAMITTIMIRAMAY चकित हो गया । मुनीश्वर के उक्त वचन ने उस के दिल में बडा गहरा प्रभाव डाला। उस ने वहीं पर सुवर्णासन (सोने की खुर्सी) रखवाया और सूरिजी से उस पर बैठने की प्रार्थना की । सूरिमहाराज ने यह कर कि - "हम लोक किसी । प्रकार के धातु का स्पर्श नहीं कर सकते" उस पर भी बैठने की अनिच्छा प्रदर्शित की । खैर; वहीं पर शुद्ध और कोरी जमीन पर अपना ही एक छोटा सा । ऊन का कपडा बिछा कर सूरिजी बैठ गये । बादशाह भी उन के सामने वहीं। गालिचे पर बैठ गया। अबुल फजल और थानसिंह आदि अन्यान्य सभ्य भी । अपने अपने उचित स्थान पर बैठ गये । अकबर ने सूरिजी से कुशल- प्रश्नादि पूछे और अपनी तर्फसे जो तकलीफ दी गई उस की माफी मांगी। सूरिमहाराज ने उचित वाक्यों द्वारा उस के आमंत्रण का समर्थन किया। बादशाहने पूछा कि आप कहां से और किस हालत से चले आ रहे हैं ? जवाब में सूरिजी ने कहा, कि- "आप की इच्छा के कारण हम गुजरात के गंधार बंदर से पैदल ही चले आ रहे हैं।' बादशाह यह सुन कर दंग हुआ और बोला कि- “अहो । मेरे लिये ऐसी वृद्धावस्था में, इतनी दूर से और इतने दिनों से आप चले आ रहे हैं, तथा | ऐसा कठिन कष्ट उठा रहे हैं ? क्या गुजरात के मेरे सूबेदार शहाबुद्दीन अहमदा खां ने अपनी कृपणता के कारण आप को सवार होने के लिये कोई सवारी वगैरह भी नहीं दी* । मुनीश्वर ने कहा - "उन्हों ने तो सब कुछ देना चाहा था। | परंतु हम अपने नियमानुसार ऐसी एक भी कोई चीज़ नहीं ले सकते ।" बादशाह विस्मित हो कर थानसिंह की ओर देखने लगा और बोला कि"थानसिंह ! मैं तो महात्मा के इस जगद्विलक्षण और अति कठिन जीवन से अनभिज्ञ था परंतु तू तो अच्छी तरह परिचित था। तो फिर मुझ को पहले ही| सूरिमहाराज को इधर का आमंत्रण देने के समय में ही - ये सब बातें क्यों न । जना दी जिस से इन महात्माओं को अपने पास बुलाने का इतना कठिन कष्ट न दिया जाता और इन की आत्म-समाधि में नाहक का विघ्न डालकर मैं पाप का। हिस्सेदार भी न बनता!" थानसिंह, अकबर के मुंह के सामने टगर टगर देखने लगा और इस का क्या उत्तर दिया जाये यह सोचने लगा । कुछ ही मिनिट समानामा MAALIdanshT im TERATIVE सामानमालामाल * भूपोऽप्युवाचेति न साहिबाख्यखानेन युष्मभ्यमदायि किश्चित् । तुरङ्गामस्यन्दनदन्तियानजांबूनदाद्यं दृढमूष्टिनेव ।। १८६ ॥ हीरसौभाग्य, १३ सर्ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016007
Book TitleKruparaskosha
Original Sutra AuthorShantichandra Gani
AuthorJinvijay, Shilchandrasuri
PublisherJain Granth Prakashan Samiti
Publication Year1996
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size8 MB
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