SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ LANKRANTIVITAMारमानातानमाया साथ साथ फतहपुर के पास पहुंचे और शहर के बहार जगमल कछवाहा के महल में उस दिन ठहरे । कोई छ: महिने की मुसाफिरी कर, संवत् १६३९ के ज्येष्ठं वदि १३ शुक्रवार के दिन सूरिजीमहाराज फतहपुर पहुंचे । दूसरे दिन । सवेरे ही अपने विद्वान् और तेजस्वी शिष्यों के साथ सूरिजी शाही दरबार में गये । इस समय मुनीश्वरजी के साथ- सैद्धान्तिक- शिरोमणि महोपाध्याय श्रीविमलहर्षगणि, अष्टोत्तरशतावधान विधायक और अनेक नृपमनरंजक । श्रीशांतिचंद्रगणि, पंडित सहजसागरगणि, हीरसौभाग्य- महाकाव्य के कर्ता के गुरु श्रीसिंहविमलगणि, वक्तृत्व और कवित्व कला में अद्वितीय निपुण तथा विजयप्रशस्तिमहाकाव्य के रचयिता पंडित श्रीहेमविजयगणि, वैयाकरण चूडामणि पंडित लाभविजयगणि और सूरिजी के प्रधानभूत श्रीधनविजयगणि । आदि १३ प्रधान शिष्य थे । __थानसिंह ने जा कर अकबर को सूरिजी के दरबार में आने की सूचना दी। बादशाह उस समय किसी अत्यावश्यकीय कार्य में गूंथा हुआ था इस लिये । उसने अपने प्रिय-प्रधान शेख अबुलफजल को बुला कर सूरिमहाराज के आतिथ्य-सत्कार करने की आज्ञा दी। शेख ने सूरिजी के पास आ कर अकबर की आज्ञा के विषय में निवेदन किया और अपने महल में पधारने के लिए । सूरिजी से प्रार्थना की । सूरिमहाराज उस के महल में पधारे और अपने योग्य || उचित स्थान पर शेख की अनुज्ञा ले कर बैठ गये। अबुल-फजल ने प्रथम बडी नम्रता के साथ सूरिजी से कुशल प्रश्नादि पूछे; और बाद में धर्मसंबंधी बातें पूछने लगा । कुरान और खुदा के विषय में उस ने अनेक सवाल जवाब किये जिन का बडी योग्यता के साथ, युक्तिसंगत प्रमाणों ।। द्वारा सूरिमहाराज ने खंडनात्मक जवाब दिया। सूरिमहाराज के विचार सुन । कर अबुल फजल बडा खुश हुआ और बोला कि “आप के कथन से तो यही । | सिद्ध होता है कि, हमारे कुरान में बहुत सी तथ्येतर बातें लिखी हुईं हैं *" मानाMAMWalam देखो, विजयप्रशस्ति-काव्य के ९ वें सर्ग के २८ वें काव्य की टीका । इन शंका-समाधानों का उल्लेख “हीरसौभाग्य-महाकाव्य" के, १३ वें, सर्ग । में, बडे विस्तार के साथ किया गया है । जिज्ञासु पाठक वहां से देख लेवें । * इदं गदित्वा विरते व्रतीन्द्रे शेखः पुनर्वाचमिमामुवाच । विज्ञायते तद्बहुग वाचि वीचीव तथ्येतरता तदुक्तौ ॥ हीरसौभाग्य, १३-१४८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016007
Book TitleKruparaskosha
Original Sutra AuthorShantichandra Gani
AuthorJinvijay, Shilchandrasuri
PublisherJain Granth Prakashan Samiti
Publication Year1996
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy