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________________ प्रस्तावना प्रतिपरिचय आख्यानकमणिकोश सवृत्ति की केवल दो ही हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हैं-एक शान्तिनाथ जैन ज्ञान भण्डार, खंभात की ताडपत्र पर लिखी हुई, जिसे हमने प्रस्तुत सम्पादन में ‘खं० ' संज्ञा दी है और दूसरी प्रति जो कागज पर लिखी हुई है, यह विजापुर (गुजरात) में स्थित रंगविमलजी महागज के संग्रह की है जिसे हमने १०' संज्ञा दी है। 'खं' संजक प्रति श्री शान्तिनाथ जैन ज्ञान भण्डार, खंभात के मूचिपत्र में प्रस्तुत प्रति का क्रमाङ्क २३३ है। पत्र संख्या ४८३, स्थिति और लिपि सुन्दर और इस की लम्बाई ३०.२ और चौडाई २.२ इंच प्रमाण है। प्रति के अन्त में लिखानेवाले की प्रशस्ति है किन्तु इस में लेखन संवत् नहीं है। फिर भी तपागच्छ के आद्याचार्य जगच्चन्द्रसूरि के उपदेश से उन्हीं के कुटुम्ब के व्यक्ति द्वारा लिखाई गई होने के कारण इस का लेखनसमय विक्रम की तेरहवीं शती का अन्त भाग होना चाहिये। लिपि का मोड भी तेरहवीं शती के प्रांत भाग ही लगता है । ग्रन्थ लिखानेवाले की प्रशस्ति इस प्रकार है प्राग्वाटवंशतिलकोऽजनि पूर्णदेवस्तस्यात्मजात्रय इह प्रथिता बभूवुः । दुर्वारमारकरिकुम्भविभेदसिंहस्तत्रादिमः सलखणोऽभिधया बभूव ॥ १ ॥ द्वितीयकोऽभूद् वरदेवनामा, तृतीयकोऽभूज्जिनदेवसंज्ञः । सोऽन्येचुरादत्नजिनेन्द्रदीक्षा निर्वागसौख्याय मनीषिमुख्यः॥२॥ ___ अज्ञानध्वान्तमूर्यः सरभसविलसच्चङ्गसंवेगरङ्गक्षोणी क्रोधादियोधप्रतिहतिसुभटो ज्ञातनिःशेषशास्त्रः । निर्वेदाम्भोधिमग्नो भविककुवलयोद्बोधनाधानचन्द्रः कालनाऽऽचार्यवर्यः स समजनि जगचन्द्र इत्याख्यया हि ॥३॥ वरदेवस्य सञ्जज्ञे वाल्हेविरिति गहिनी । याऽभूत् सदा जिनेन्द्राहिकमलासवनेऽलिनी ॥ ४ ॥ पुत्रास्तयोः साढलनामधेया-ऽरिसिंहइत्याय-वज्रसिंहाः । विवेकपात्री सहज च पुत्री कुशीलसंसर्गतरोर्लवित्री ॥ ५ ॥ साढलस्य प्रिया जज्ञे राणूरिति महासती । पुत्रास्तु पश्च तत्रायो धीणाख्यः शुद्धधर्मधीः ॥ ६ ॥ द्वितीयः क्षमसिंहाख्यो, भीमसिंहस्तृतीयकः । देवसिंहाभिधस्तुयों, लघुर्महणसिंहकः ॥ ७ ॥ क्षेमसिंहाभिधो देवसिंहच भवभीरुकः । श्रीजगच्चन्द्रसूरीणां पार्श्वे व्रतमशिश्रियत् ॥ ८ ॥ धीणाकत्य कट्टर्नाम पत्नी मोढाभिधः सुतः । अन्येयुः मुगुरोर्वाक्यं धीणाकः श्रुतवानिति ॥ ९ ॥ __ भोगास्तुङ्गतरङ्गभङ्गभिदुराः सन्ध्याभरागभ्रमौपम्या श्रीनलिनीदलस्थितपयोलोलं खलु प्राणितम् । तारुण्यं तरुणीकटाक्षतरलं प्रेमा तडित्सन्निभो ज्ञात्वैवं क्षणिकं समं विदधतां धर्म जनाः ! मुस्थिरम् ॥ १० ॥ मज्ज्ञानयुक्तो नियतवृपोऽपि भवेन्महानन्दपदप्रदायी । तत्रापि च स्वा-ऽन्यविबोधकारीत्याहुः श्रुतज्ञानमिहोत्तमं हि ॥११॥ तच्च कालमतिमान्यदोषतः पुस्तकेषु भुवनैकवत्सलैः । पूर्वसूरिभिरथो निवेशितं तद् वरं भवति तस्य लेखनम् ॥ १२ ॥ एवं निशम्य तेन न्यायोपार्जितधनेन धन्येन । आख्यानकमणिकोशस्य पुस्तकोऽयं व्यधायि मुदा ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016006
Book TitleAkhyanakmanikosha
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages504
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary & Story
File Size13 MB
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