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________________ उसको उस समय अनन्त शारीरिक व्याधियों की अनुभूति होगी और उसका अगला जीवन भी सामान्यतः उसी प्रकार का रूप ग्रहण करेगा। (2) यदि उसकी मृत्यु निष्काम भाव से, रागद्वेष से परे, शांतिपूर्ण वातावरण में होगी, तो उसे मृत्यु के समय पीड़ा की तनिक भी अनुभूति नहीं होगी। उसका अगला जीवन भी आदर्श जीवन का रूप प्राप्त करेगा। जैन शास्त्रों में पहले प्रकार की मृत्यु को बाल-मरण और दूसरे प्रकार की मृत्यु को समाधिमरण या पंडित-मरण कहा गया है। जिसका पंडित-मरण होता है वह व्यक्ति पुण्यवान और सौभाग्यशाली माना जाता है। बाल-मरण में व्यक्ति की मृत्यु स्वतः नहीं होती। क्रोध कषाय के वशीभूत हो रेल की पटरी पर सो जाना, विष-पान कर लेना या कुए में कूद जाना प्रादि उपाय मृत्य के साधन होते हैं। इस प्रकार कषायपूर्वक हाय-हाय करते मरना बालमरण कहलाता है । आज संसार में आत्महत्या के प्रांकड़ों में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है । पूरे विश्व में लगभग 32 लाख व्यक्ति प्रतिवर्ष प्रात्महत्या करने की कोशिश करते हैं । पर इसके पीछे संयमशील या धर्म रक्षा का भाव नहीं है। इन लोगों में अधिकांश लोग क्षय या कैंसर रोग से पीड़ित, पारिवारिक अशांति से दुःखी, गरीबी, भुखमरी, बेकारी, प्रेम में निराशा, कुण्ठाग्रस्त या परीक्षा में असफल हुए होते हैं। ये मेहनत और संघर्ष से जी चुराकर कषायों के वशीभूत हो अपने जीवन को नष्ट कर देना चाहते हैं। मरते समय उन लोगों के परिणाम शुद्ध नहीं रहते हैं। भावावेश में उन्हें कर्तव्याकर्तव्य का भान नहीं रहता । वे अपने पापों की सल्लेखना नहीं कर पाते । परिणाम यह होता है कि उन्हें मरने के बाद भी अच्छी गति नहीं मिलती, साथ ही लोक में भी उनकी निन्दा होती है। ___पंडित-मरण ज्ञानी जीवों का होता है जो मृत्यु को मित्र मानकर उससे मिलने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं । मृत्यु उनके लिए विषाद का कारण नहीं होती। वे दुःखी हो प्रात्महत्या का सहारा नहीं लेते । परन्तु अपनी प्रायुष्य को पूरी होते देख अपने सम्पूर्ण जीवन में किए पुण्य धर्म का फल प्राप्त करने के लिए मृत्यु का आह्वान करते हैं। इस कृत्य में ऐहिक तथा पारलौकिक समस्त कामनाओं का परित्याग कर प्रशान्त चित्त से यात्मिक चिन्तन करते हुए समभावपूर्वक प्राणोत्सर्ग किया जाता है । इस प्रकार के मरण को वरण करने वाला मृत्यू के समय अपने भूतकालीन समस्त कृत्यों की आलोचना करता है। यह एक प्रकार का मरणान्त अनशन है। इसमें श्रावक अथवा श्रमण पाहारादि का त्याग कर समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त करता है। इस समाधि मरण, पंडित मरण को सथारा भी कहते हैं। ___ जिसने जन्म लिया, उसका मरना तो निश्चित है ही फिर मृत्युभय से कांपना व्यर्थ है । काया और कषायों को कृश करते हए सल्लेखनापूर्वक मरना जन्म की सार्थकता है। कायरतापूर्वक पशु-पक्षी और कीट-पतंगों की तरह मरना जन्म-मरण के बन्धन को बढ़ाना है। भगवान महावीर ने कहा है-मानव ! तू मरने की कला सीख ! मृत्यु जब सत्य है तो उसे शिव और सुन्दर बना । उसके विकराल रूप की कल्पना करके तू मृत्यु के नाम से थर्रा उठता है, मगर उसके शिव-सुन्दर स्वरूप को क्यों नहीं देखता? मृत्यु जीवन का अन्तिम और अनिवार्य अतिथि है । महापुरुषों ने इसकी अनिवार्यता को समझा है इसीलिये उनके लिए मृत्यु सरल और सुखद बनी। उनका कहना था कि थकान मिटाने 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014037
Book TitleInternational Jain Conference 1985 3rd Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages316
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size12 MB
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