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________________ भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक का मंगलानुष्ठान-- एक पृष्ठभूमि -डॉ. निजामउद्दीन डॉ० निजामुद्दीन ने प्रस्तुत लेख में 1981 में हुए महामस्तिकाभिषेक महोत्सव का, उसकी ऐतिहासिक, पुराऐतिहासिक पृष्ठ भूमि के साथ धारा प्रवाहयुक्त, प्रोजल भाषा में संक्षिप्त, सुन्दर परिचय दिया है। उन्होंने इस महोत्सव को धार्मिक सहिष्णुता, सर्व-धर्म-समझाव के साथ राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय संस्कृति की समन्वयवादी भावना का शुभ दृष्टान्त माना है ।-सम्पादक ग्रेनाइट पत्थर पर खुदी भूरे-सफेद रंग की से उसे मुक्त किया तो उसके हाथ स्वतः खुल गये । 17.50 मीटर ऊँची विशाल, मति का 1008 स्व० नेमिचन्द्र शास्त्री के मतानुसार भगवान मंगल कलशों से अभिषेक 22 फरवरी 1981 को बाहुबली की जो एक ही विशाल चट्टान पर शिल्पकिया गया। यह भव्य मूर्ति कर्नाटक स्थित 5000 कार अरिष्टनेगी ने मनोहर मूर्ति बनाई थी उसकी की आबादी वाले कस्बे श्रवणबेलगोल के सन्निकट स्थापना 13 मार्च 981 में की गई और तभी विध्यगिरि पर स्थित है । लाखों जैनमत के अनु- उसका दूध, केसर, जल आदि से भव्य अभिषेक यायी उस मति की प्रतिष्ठापना के 1000 वर्ष किया गया था। तब से हर बारहवें वर्ष उस महाहोने पर उसके प्रति अपनी अगाध आस्था प्रकट मूर्ति का महामस्तकाभिषेक समारो करने वहां पहुंचे । यह एक ही पत्थर पर बनी भव्य में परिसम्पन्न होता आया है । जिस भगवान बाहुमति भगवान बाहबली की है जो सारे संसार को बली की प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक का समारोह त्याग की अक्षुण्ण ज्योति दिखला रही है । कहा इतनी निष्ठा मोर भक्तिभावना से मनाया जाता है जाता है गंगवंश के नरेश राजमल्ल चतुर्थ के सेना वह बाहुबली कौन थे, उनमें ऐसी कौन-सी विलपति व मंत्री धर्मानुरागी चामुण्डराय ने भगवान क्षण बात थी जिसके प्रति असंख्य लोग अनेक बाहुबली की प्रतिमा उस समय के कुशल शिल्पी कठिनाइयाँ, बाधाएं उठाकर वहां पहुँचते हैं और अरिष्टनेमी द्वारा बनवाई थी। शिल्पी कुछ धन उस महापर्व में शामिल होते हैं । इस रहस्य को लोलुप था, राजा ने जब उसे पुरस्कार व पारि- जानने के लिए हमें हजारों वर्ष पीछे मुड़कर देखना श्रमिक के रूप में असंख्य स्वर्ण मुद्राएदी तो होगा । उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा, जैसे ही उसने अपनी मां के सामने स्वर्ण मुद्राएं उठाकर जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान प्रादिनाथ दिखाना चाही तो उसके दोनों हाथ जुड़ गये। माँ या ऋषभदेव माने जाते हैं। उन्होंने एक राजा के ने उसकी धन-लिप्सा की निन्दा की और लोभवत्ति रूप में जन-कल्याण पर अत्यधिक बल दिया। 2/2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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