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________________ नैयायिक ज्ञान को भौतिक द्रव्यो विजातीय पदार्थों में कभी उपादान उपादेय नहीं मानते लेकिन वे प्रात्मा को स्वरूपतः निर्गुण भाव नहीं हो सकता। अचेतन और चेतन विरूद्ध मानते हैं। उनके अनुसार इन्द्रिय और मन के जातीय हैं। इसलिए कितने ही अचेतन पदार्थ प्रात्मा से संयुक्त होने पर उसमें ज्ञान की उत्पत्ति मिल जाये उनसे चेतना उत्पन्न नहीं हो सकती। होती है तथा इस संयोग के अभाव में प्रात्मा अचे- चेतना या ज्ञान की उत्पत्ति तो पूर्ववर्ती ज्ञान पर्याय तन होती है। गहन निद्रा तथा मूविस्था इसका युक्त द्रव्य से ही हो सकती है। चार्वाक ने अपने उदाहरण है। रत की सिद्धि हेतु जो दृष्टान्त दिये हैं वे भी उपादान उपादेय की सजातीयता को ही सिद्ध जैनाचार्य कहते हैं कि प्रत्येक कार्य के घटित करते हैं। प्रथम दृष्टान्त में कार्य रूप मादकता करने होने के लिए दो प्रकार के कारण प्रावश्यक हैं - अपने उपादान कारण में स्थित रस गण की ही उपादान कारण और सहकारी कारण उपादान एक अवस्था है तथा द्वितीय उदाहरण में लाल रंग कारण वह है जो स्वयं कार्य रूप में परिणत की उत्पत्ति अन्य रंगों से ही हुई है। दोनों पुद्गल होता है। पूर्वक्षणवर्ती पर्याय युक्त द्रव्य ही के ही गुण है । उत्तरक्षणवर्ती पर्याय का उपादान कारण होता हैं । सहकारी या निमित्त कारण उपादान कारण कारण और कार्य में भेदाभेद सम्बन्ध होता है । को कार्य रूप में परिणत होने के लिए अनुकूल इनमें द्रव्य दृष्टि से अभेद तथा पर्याय दृष्टि से भेद होता परिस्थितियां निमित्त करता है। है। एक ही द्रव्य की पूर्वापर पर्यायों में कारण कार्य __ सम्बन्ध होता है। इन पर्यायों का स्वभाव एक है अपने कारण में पूर्ण रूपेण असत् कार्य की इसलिए ये अभिन्न हैं तथा ये उस एक स्वभाव की कभी उत्पत्ति नहीं हो सकती, अपितु सदैव कारण दो क्रमिक अभिव्यक्तियां हैं इसलिए भिन्न भिन्न हैं । में द्रव्य दृष्टि से सत् तथा पर्याय दृष्टि से असत् उदाहरण के लिए एक स्वर्ण द्रव्य की हार, कुण्डल कार्य की उत्पत्ति होती है। यदि पूर्णरूपेण असत् कार्य की ही उत्पत्ति हो सकती तो कारण विशेष में कंगन आदि क्रमिक पर्यायें हारादि अवस्थानों की दृष्टि से भिन्न होते हुए भी स्वर्ण को दृष्टि से सभी कार्यों की प्रसत्ता तथा सभी कारणों में कार्य विशेष की असत्ता समान है अतः किसी भी कारण एक ही हैं। से किसी भी कार्य की उत्पत्ति हो जानी चाहिये थी। प्रतिनियत कार्य प्रतिनियत कारण से ही क्यों कारण कार्य सम्बन्ध एक सुनिश्चित और अनिवार्य सम्बन्ध है। समर्थ कारण से कार्य की उत्पन्न होता है ? नैयायिकों के मत में ज्ञान का आत्मा में उसी तरह पूर्ण प्रभाव है जिस प्रकार उत्पत्ति अवश्यमेव होती है। द्रव्य की पूर्ववर्ती पर्याय अव्यवहित परवर्ती पर्याय का समर्थ कारण आकाशादि अन्न द्रव्यों में है तथा इन्द्रिय और मन का संयोग प्रात्मा के साथ ही साथ अन्य सभी है और उसे अवश्यमेव उत्पन्न करती है । यह शृखला व्यापक द्रव्यों से भी है । अतः या तो ज्ञान सभी में अनादि अनन्त है। इस उत्पति विनाश में न तो द्रव्य उत्पन्न होना चाहिये या किसी में भी उत्पन्न नहीं का कोई गुण नष्ट होता है और न ही कोई नवीन होना चाहिये । गुण उत्पन्न होता है क्योंकि कारण अपने अनुरूप कार्य को ही उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखता है और उसे अवश्यमेव उत्पन्न करता है। इसलिए कुन्द4. अष्ट सहस्त्री (हिन्दी अनुवाद)-1/4/284 कुन्दाचार्य कहते हैं : 1152 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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