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________________ दृष्टि एवं यथार्थ ज्ञान से अद्भूत विवेक ही मनुष्य का मार्गदर्शन करता है। और फिर जैसा कुछ हमारा आचरण होता है, व्यवहार होता है, मनौवृत्ति एवं प्रवृत्ति होती है वही हमारे व्यक्तित्व का आधार हमारा चरित्र बनता है । और वह क्योंकि नैतिकतापूर्ण, लोक सम्मत एवं धर्मानुसारी होता हैं, अतएव वही सच्चरित्र हैं । इस चारित्र की व्यक्ति को यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए । धन सम्पत्ति तो प्राती रहती है। धन के नष्ट होने से कोई नष्ट नहीं होता, किन्तु चारित्र के नष्ट होने पर मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है— वृत्त यत्नेन संरक्षेत वित्तमेति च यातिच | क्षीरणो वित्तः क्षीणो, वृत्तस्तु हतो हतः ॥ नीति के महान आचार्य चाणक्य के अनुसार इस दुनिया की समस्त भगदौड़ खींचातान और हातोबा के पीछे जो रहस्य है वह सुख की खोज है । किन्तु - 'सुखस्यमूलं धर्मः धर्मस्य मूलं प्रर्थः अर्थस्य मूलं वाणिज्य : वाणिज्यस्य मूलं स्वराज्यं स्वराज्यस्य मूलं चारित्रम्' । अतः चारित्र ही धन है, चारित्र ही धर्म है, और चारित्र ही परमसुख है । महाभारत के अनुसार भी सदाचार हीं धर्म है, वशिष्ठ स्मृति भी प्रचार को परमधर्म घोषित करती है । जिनवाणी की द्वादशांगी में तो Jain Education International प्रथम अंग प्रचरांग है, और 'चारित्रं खलुधम्मो का उद्घोष किया गया है। उर्दू कवि अकबर भी कहता है अगर आमाल अच्छे हैं तो पाओगे बड़े दरजे । समझ लो इम्तेहां इस दौरे फानी में तुम्हारा है । एक पाश्चात्य चिन्तक के अनुसार मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ रत्न है, और उस रत्न की महत्ता उसकी मानवता में निहित है । सुख की कुंजी यही है कि तुम दूसरों को समझो और उससे पहिले स्वयं अपने आपको समझो। यह श्रात्मनुभूति ही श्रात्मोपम्य और समदशित्व का मूलाधार है। श्रेष्ठ विचार ही श्रेष्ठ जीवन के निर्माता हैं ? प्रस्तु पंचपाद व सप्तव्यसन का त्याग, स्वर्थ त्याग, सेवा भाव, परोपकार, दया, संयम और श्रात्मानुशासन आदि धर्माधारित चारित्र एवं नैतिक मूल्यों की जीने या जीवन में उतारने में ही व्यक्ति एवं समष्टि का कल्याण निहित है। मानव इतिहास के विभिन्न युगों में बाह्य नैतिकता एवं चारित्र के आयाम भले ही कुछ भिन्न रहें हो, उनकी आत्मा व उनके मूलाधार नहीं बदले। जब तक वे नहीं बदलते, मानवता का भविष्य आशापूर्ण बना रहेगा । 1/44 For Private & Personal Use Only ज्योति निकुंज चार बाग, लखनऊ www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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