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________________ प्रकार सम्यग्ज्ञान एवं विवेक युक्त समीचीन दृष्टि बाला व्यक्ति ही समत्व की साधना कर सकता हैअपने सहज शान्त स्वभाव में स्थिर रहने में सतत - प्रयत्नशील रह सकता है । व्यक्ति का बाह्याचार या चारित्र भी सम्यक् ही होगा । एक बात और है आत्मस्वभाव, अन्तरंग चारित्र या मनुष्यत्व के भी जो मान हैं वे अपरिवर्तनीय, शाश्वत एवं सर्वव्यापी हैं । उनकी साधना और विकास एकान्त में मनन-चिन्तन, मनोनिग्रह, मनोनुशासन आदि स्वकीय अध्यवसाय से फलित होते हैं, किन्तु बाह्यचारित्र, सदाचरण, शील, या सामान्यतया चारित्र ( करेक्टर) दुनिया के संघर्षमय जीवन में, अन्य व्यक्तियों के साथ सम्पर्क एवं आदान प्रदान में प्रस्फुटित एवं चारितार्थ होता है । अन्य जड़ एवं चेतन पदार्थों के प्रति उसका क्या कैसा रुख रहता है, अपने परिवार के सदस्यों के साथ पड़ोसियों के साथ, समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ, राष्ट्र के अन्य नागरिकों के साथ मानव मात्र तथा मानवेतर अन्य प्राणियों के प्रति उसका क्या और कैसा व्यवहार होता है, प्रार्थिक व्यवसायिक सामाजिक राजनीतिक आदि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने सम्पर्क में आने वालों के साथ उसका क्या और कैसा व्यवहार रहता है, इन सब तथ्यों के आधार पर ही व्यक्ति के चरित्र का मूल्यांकन होता है । उक्त बाह्याचरण के लोक सम्मत नियमों एवं मर्यादाओं के पालन में ही नैतिकता निहित हैं । जो नियम एवं मर्यादाएं स्वभाव या धर्मसम्मत होती हैं उन्हें ही समाज का प्रबुद्धवर्ग नैतिकता के नाम से स्वीकार कर लेता है और प्रचारित करता है । प्राय: पूरे समाज की स्वकृति प्राप्त होने पर उक्त नैतिक मूल्यों के जनसाधारण द्वारा अनुपालन में समाज भय या लोक भय भी कार्यकारी होता है । जो अन्तरंग चारित्र से अनुप्राणित नहीं है, Jain Education International उन्हें भी इस प्रकार के भय सदाचरण अथवा नैतिकता में मर्यादित रहने के लिए प्रेरित या कभी-कभी बाध्य भी करते हैं। समाज सम्मत नैतिक मूल्यों को राज्य भी अपने विधि विधान द्वारा करणीय बना देता है और उनका उल्लंघन करने वालों के लिए दंड का विधान करता है । बहुधा समाजभय से अधिक राजमय कार्य कारी होता | किन्तु जो धर्मभीरु होते हैं, जिनकी धर्म में आस्था और विश्वास होता है, जो पुण्य पाप का विवेक जानते हैं, वे उक्त धर्म भय, ईश्वरभय, परलोकभय या पाप भय के कारण ही दुष्कर्मों एवं अनैतिक आचरणों से विरत रहते हैं—जन सामान्य में ऐसे व्यक्तियों की अधिक संख्या होती है । इस प्रकार जबकि आत्मधर्म, अन्तरंग चरित्र समदृष्टि या मनुष्यत्व बाह्य प्राचरण शील या चरित्र का आधार है, नैतिक नियम या नैतिकता उक्त लोक सम्मत आचार-विचार से प्रसूत हैं । किन्तु जबकि अन्तरंग चारित्र के मूल्य शाश्वत एवं परविर्तनीय होते हैं, बाह्याचार-विचार के मूल्यों या मान अनेक अंशों में द्रव्य-क्षत्र-काल-भाव के अनुसार अथवा व्यक्ति, समाज, देश, काल, परिवेश एवं परिस्थितियों के अनुसार बहुधातंशोधित-परिवर्तित भी होते रहते है, और तदनुसार नैतिक मूल्य भी कथंचित बदलते रहते हैं । यही कारण है कि चारित्र एवं नैतिकता के प्रायाम विभिन्न युगों तथा विभिन्न देशों या समाजों में अथवा कभी-कभी एक ही काल और समाजवर्ती जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भी सर्वथा एक से नहीं रहे, सदैव अल्पधिक अन्तर होते रहे और होने वाले अन्तर या परिवर्तन कभी हितकारी भी हुए तो कभी महितकर भी । उदारहरणार्थ, जब सुदूर का अत्यन्त सरल प्रकृत्याश्रत 1/42 For Private & Personal Use Only अतीत में भोग भूमि जीवन था तो किसी www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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