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________________ और इन तत्वों के प्रति ज्ञान, इनका भेद विज्ञान तथा सीपियों की सम्पत्ति को एकत्र किया था। वस्तुत: ज्ञान की कोटि में आता है। प्रास्था, अपनी सामर्थ्य से भी अधिक मुझे आकर्षित करने ज्ञान के साथ तत्व का प्रयोग अथवा उनसे सम्ब- वाली सम्पत्ति एकत्र हो चुकी थी। अन्तमें जब घर न्धित चर्या प्राचार कोटि में आती है । प्रास्था, लौटना हुया तो मेरे सामने उस ढेर को बटोरने ज्ञान और चर्या की सम्यक् त्रिवेणी मोक्ष के मार्ग तथा ले चलने की समस्या आ खड़ी हुई। परिजनों का प्रवर्तन करती है। यही त्रिवेणी सम्यक् श्रम ने कोई साथ नहीं दिया। उस सम्पत्ति की निरका सूत्रपात करती है । इस त्रिवेणी के परिमार्जन र्थकता उनके लिए स्पष्ट थी। वे ज्ञानी थे, मुझसे का कार्य धर्म के दश प्रभेदों-क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, उसका छूटना कष्टकारी हो उठा था। ममता का सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, प्राकिंचन्य और संसर्ग अज्ञानता में होता है और अज्ञानता में ही ब्रह्मचर्य के समाचरण द्वारा सम्पन्न होता है। छोड़ने की बात आगे प्राती है, तभी व्यक्ति को कष्ट उठाना पड़ता है। अाज मुझे लगता हैं कि तीर्थकर महावीर ने इस प्रकार के श्रम को नीजिव सीपियों तथा पाषाणी-शकल-कूल के प्रति अजित करने हेतु बल दिया था। फलस्वरूप इतना आग्रह निरी अज्ञानता नहीं हैं तो और भटकता, पराश्रित प्राणी अपने पैरों पर खड़े क्या है ? आज उनके प्रति मेरे मन में कोई ममत्व होने का साहस और शक्ति का अनुभव करने लगा। नही है । महावीर स्वामी ने इसी तथ्य को जानने अब वह सुख और कल्याण प्राप्त्यर्थ किसी प्रभु के लिए व्यक्ति को तत्व-बोध हेतु ध्यान आकर्षित तथा शक्ति के अधीन रहने के लिए दीन-हीन को किया था। भूमिका निर्वाह करने से मुक्त हो गया। वह उठा और उसकी जीवन चर्या भी उठने लगी। उसके सम्यक श्रम और समता की सत्यता उत्पन्न अंग-अंग अन्तरंग में आस्था उत्पन्न हो उठी कि हो जाने पर व्यक्ति का विकास स्वतः ही समाव्यक्ति अपने कर्म का स्वयं कर्ता और भोक्ता रम्भ हो उठता है । भटकन तो मात्र तब तक है होता है। संसार की कोई शक्ति उसे न मार जब तक उसे सम्मार्ग की प्राप्ति न हो। भला सकती है और न दे सकती है प्राणदान | वह परिधि पर चक्कर लगाने से आज तक कोई केन्द्र तत्वों के रूप-स्वरूप को पहिचानने के लिए तत्पर तक पहुंच पाया है। चक्कर चाहे पशु-पीठ पर, हना । तत्व-बोध होने पर अन्तरंग में उनके प्रति यान-वायुयान अथवा किसी तीव्रतम साधनों से ही प्रास्था-विश्वास उत्पन्न होता है। तत्व-बोध और क्यों न लगाया जाय, उसका केन्द्र तक पहुंचना भेद विज्ञान को जानकर व्यक्ति जो श्रम करता कभी सम्भव नहीं होता। केन्द्र तक पहुचने के है वह वस्तुतः सार्थ होता है। लिए उसे परिधि का प्रकर्षण छोड़ना होता है । तत्व के प्रति अजान रहने पर ही व्यक्ति में इस भेद-विज्ञान को जानना आवश्यक है कि मोह और ममता की भावना जागरूक रहती है। परिधि बहिर्मुखी विकर्षण मात्र है। उसके प्रति बोध होने पर बुराई ठुकराई नहीं जाती। इस ममता निरर्थक है। केन्द्र तक पहुंचने के लिए सम्बन्ध में मुझे एक घटना का स्मरण हुआ है। व्यक्ति को दिशा परिवर्तन की महती आवश्यकता अपनी छोटी अवस्था में मुझे परिजनों के साथ है। परिधि-प्रभुता, ममता मिटे कि अन्तर्मुखी किसी एक नदी के तट पर जाना हुआ था । लोगों होना हो, तब जो समत्वशील यात्रा होगी उससे ने नदी के स्वच्छ जल में स्नान किये थे और मैंने केन्द्र तक स्वतः पहुंचता होगा । ममताकूल-कगारे पर एकत्र चमकीले पत्यरों के टुकड़ों सौहार्द की विरोधिनी शक्ति है। भटकाव है। 1/17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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