SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संजीव देखकर लन्दन के पन्द्रह वर्षीय विद्यार्थी अप्पारणमप्पणा रुधिऊरण दोपुण्णपावजोगेसु । मेम्यूल रोज ने लिखा था कि जिस दुनियां में दंसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अरण म्हि । पशुओं की हत्या की जाती है उसमें मैं नहीं जीना जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा । चाहता (प्राय डु नाट वान्ट टु लिव इन दिस वर्ल्ड वि कम्म गोकम्म चेदा चितेदि एयत्त ।। व्हेअर एनिमल्स पार मेसेकर्ड) । अमेरिका के भूत- अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमनो प्रणण्णमयो । पूर्व राष्ट्रपति व कवि मेकडोनल व्हाइट ने हिंसा लहदि अचिरेण अप्पारणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।। की इस पीड़न, चुभन से भरी दर्दनाक दशा का (समयसार, गा० १८७-८६) वर्णन उस समय कविता में किया था। जब यह आत्मा अपने उपयोग के द्वारा दो हम नहीं चाहते कि आने वाला कल कसा कसा पुण्य-पाप रूपी शुभ-अशुभ योगों को रोक कर होगा? किन्तु हमें यह प्रत्यक्ष रूप से दिखलाई दर्शन-ज्ञान में स्थित होता है, तब सभी इच्छानों पड़ रहा है कि हिंसा के नित नये अौजार बनते जा से विरत होकर सभी अंगों से रहित होता हा रहे हैं. उनके प्रयोग करने के तरीके बदलते जा रहे स्व-शद्वात्मा का ध्यान करता है। उस समय यह है; फिर भी मनुष्य धर्मान्धता के शिखर पर चढ़ ज्ञाता-द्रष्टा होकर एकत्व का ही चिन्तन, अनुभवन कर जीना चाहता है, सारी दुनिया की दौलत का । करता है। इस प्रकार प्रात्मा का ध्यान करता मालिक बनकर ऐशो-पाराम से जीना चाहता है। हा उससे अनन्यमय होकर दर्शन, ज्ञानमय होकर किन्तु दमन, शोषण व अत्याचार पर आधारित अल्प काल में ही कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त मनुष्य के सभी कार्य दुःख-दर्द से पैदा होते हैं और करता है। वह उनको करता हुआ स्वयं भी प्रशान्त व पीड़ित होता है । इसलिये हमें चाहिए कि हम अपना ही यथार्थ में समस्त कर्मों के संन्यास की भावना नहीं, अपने पड़ौसियों का, अपने पड़ोसी देशों का करने वाला अपने पाप का अवलम्बन लेकर सच्चे भी ख्याल रखें क्योंकि हम बाहर में उन सबसे जुड़े सुख को प्राप्त करता है । प्राचार्य अमृतचन्द्रसूरि के हुए हैं । जो अपना भला करता है, वही दूसरे का शब्दों मेंभला कर सकता है । आज सम्पूर्ण विश्व के देश समस्तमित्येवमपास्यकम राष्ट्रव्यापी नीति-निर्धारण के लिए और सामाजिक कालिकं शुद्धनयावलम्बी। व्यवस्थाओं को लागू करने के लिए एक-दूसरे पर विलीनमोहो रहितं विकारअपने को निर्भर मानते हैं। किन्तु वास्तविकता श्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे ॥ यह है कि जो स्वयं आत्मनिर्भर नहीं होता, वह कदापि उन्नति नहीं कर सकता । इसलिये भगवान संक्षेप में. स्वाबलम्बन ही साक्षात् सच्चे सुख महावीर ने प्रात्मोन्नति का मार्ग बताया था, को प्राप्त करने का एक मात्र उपाय है। प्राचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं 243, शिक्षक कालोनी, नीमच 1/11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy