SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तर्जगत् में जो भी घटित होता है, उसमें भोतिक ध्यान करते हैं अर्थात् अपने से जुड़ते हैं तो सारी कितना है और आत्मिक हितना है--इस भेद- दुनिया से अपने आप अलग हो जाते हैं, अलग विज्ञान से भी हम अनजान हैं। इसलिये स्व-पर के करना नहीं पड़ता है। किन्तु आप दुनियां से जुड़े भेद-विज्ञान का महान् सूत्र अध्यात्म के रहस्य को रहना चाहते हैं, तो कितना, क्या जुड़ते हैं, दुनियां प्रकट करने वाला सिद्ध हुआ। को अपना बनाने में ही चिन्ता, परेशानी और समस्याओं को जन्म देने वाले बन जाते हैं । जो यह सुनिश्चित है कि महावीर महान् थे, अपने पापको किसी को पैदा करने वाला मानता उनका दर्शन-ज्ञान और वे स्वयं महावीर, अजेय, है, वह उसको मिटाने वाला भी बनता है । हम अपराजित तथा अनन्तशक्ति सम्पन्न थे। एक किसी का अच्छा या बुरा कर सके या न कर सकें, 'अनन्त' शब्द ही उनके अनन्त को संकेतित कर पर करने वाला तो हम अपने आप को मान ही सार्थक हो गया । अन्य सीमित शब्द उस अर्थवत्ता लेते हैं। हमारा दायित्व है कि हम अपना भाव को कैसे समाहित कर सकते हैं ? ....परन्तु प्रश्न करें। भावों के अनुसार ही हमारी दुनियां बनती यह है कि वर्तमान जीवन के सन्दर्भ में भगवान है। हम किसी को अच्छी नजर से देखते हैं तो यह महावीर का धर्म व दर्शन हमारा समाधान किस स्वाभाविक है कि वह भी हमें अच्छी नजर से प्रकार कर सकता है ? देखेगा । क्योंकि देखना हमारे हाथ की बात है धर्म,व दर्शन शाश्वत है; किन्तु समस्याएं और जैसा हम देखते हैं वैसे ही भावों का फल या शाश्वत नहीं हैं। समय तथा परिस्थितियों के अनुभव हमें प्राप्त होता है-इसमें कोई सन्देह बदलते हुए सन्दर्भो में हमारे जीवन की समस्याए नहीं है । इसलिये भावलोक की विशुद्धता प्राप्त बदलती रहती हैं । समस्याओं का जन्म हम बाहर करना समस्या का मूलगामी समाधान है । में मानते हैं, परिस्थिति तथा उससे सम्बन्धित घटना को उसका घटक मानते हैं, बाहरी कारण- यदि हम समस्याओं का समाधान बाहरी कलापों को उसका जनक मानते हैं और इसलिये कारणों के आधार पर खोजें, तय करें तो परिजो कुछ भी घटता है उसका दायित्व हम दूसरों णाम निराशाजनक ही हाथ लगेंगे । इसका मुख्य पर डालते हैं। हम उससे कहां तक जुड़े हुए हैं या कारण यह है कि हम प्रत्येक कार्य का दायित्व अपने को किन परिस्थितियों में सहभागी मानते निमित्त की उपस्थिति के अनुसार दूसरों पर डालते हैं और किन स्थितियों में उसके उत्तरदायित्व को रहे हैं । बात छोटी-सी होती है, किन्तु हमारी नकारते हैं-यही समस्या का मूल है । जैन दर्शन नासमझी से कैसी विस्फोटक स्थिति का निर्माण के अनुसार आपके अन्तर्जगत् में और आपके बहि- कर देती है-इसका अहसास हमें विस्फोट से जगत् में जो भी घटित होता है, उसका दायित्व पहले नहीं होता । बाहर से दिखलाई पड़ने वाले अापके ऊपर ही है। प्रापका संकल्प, आपका भाव कारण सदा वही नहीं होते जिनका हमें अहसास और आपका परिणाम क्या प्रभाव ग्रहण करता है होता है । किसी ने मन्दिर बनवाया, किसी ने और क्या प्रभाव छोड़ता है--यह आपके ही अधीन अपने दल का निर्माण किया और कोई अपनी है । आप चैतन्य, चिन्मय हैं, ज्ञानचेतना आपका सीमा का चित्रांकन करने में लगा है, तो वह कोई धन है। आप उस धन को लुटाना चाहते हैं या अच्छा या बुरा कार्य नहीं कर रहा है, किन्त उसके अपनाना चाहते हैं-यह आपके भावों पर निर्भर उस कार्य से हमारे मन में कैसा भाव जगता। है। आप अपने को देखते हैं, अपनी भावना, अपना ईर्ष्या-द्वेष या स्वार्थ कहाँ टकराता है उसे देखकर 1/9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy