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________________ मानव न होकर पशु मात्र रह जायगा । अब सत्य को लीजिए, सत्य के विपरीत होगा असत्य । कोई व्यक्ति सदा सत्य बोलकर समाज में नही रह सकता, जबकि सत्य सेन केबल रह सकता है afe सुखपूर्वक रह सकता है। इसी प्रकार अस्तेय को भी लिया जा सकता है । कहते हैं महावीर ने पार्श्वनाथ के 'चतुर्याम मार्ग' में ब्रह्मचर्य जोड़ा है। कल्पना कीजिये यदि ब्रह्मचर्यं न हो. सारे समाज में व्यभिचार फैल जाये तो समाज की क्या स्थिति होगी ? महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त प्राज के समाजवाद से मिलता जुलता है। महावीर ने यह नहीं कहा कि तुम, सभी कुछ त्याग कर वानप्रस्थी हो जाओ, ऐसा कहते तो कोई आहार देने वाला भी न बचता, सामाजिक स्थिति ही संशयास्पद हो जाती - 'नग्नक्षपणके देशे रजकः किं करिष्यति' । उन्होंने कहा - रखो तो किन्तु उसकी एक सीमा बांध लो, जितने की तुम्हें प्रावश्यकता है उतना रखो बाकी दूसरों के उपभोग के लिए छोड़ दो । वही महावीर का 'जियो और जीने दो' का सन्देश है। उन्होंने कहा— जैसे ग्रग्नि में चाहे कितना ही ईंधन डालो, वह तुष्ट नहीं होती, सागर में चाहे जितनी ही नदियाँ मिल जायें वह तुष्ट नहीं होता ऐसे ही मनुष्य को चाहे जितनी धन-सम्पत्ति मिल जाऐ वह कभी सन्तुष्ट नहीं होता "कसि पि जो इमं लोयं, पडिपुण्गं दलेज्ज इक्कस्स । तेराऽनि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे श्राया ।।' " अर्थात् यदि धन-धान्य परिपूर्ण यह सारी सृष्टि किसी एक व्यक्ति को दे दी जाय तब भी उसे सन्तोष होने का नहीं, क्योंकि लोभी आत्मा की तृष्णा दुष्पूर होती है । अतः कही न कही जाकर सीमा बांधनी ही होगी । व्यक्ति सोचता है कि मैं जो कहता हूँ, जो सोचता हूँ वही सत्य है । प्रजातान्त्रिक कहता है प्रजातन्त्र ठीक है और समाजवादी कहता है समाजवाद । किन्तु वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । राम दशरथ की दृष्टि से पुत्र, लक्ष्मण की दृष्टि से भाई, सीता की दृष्टि से पति और लव की दृष्टि से पिता है । राम एक ही हैं किन्तु दृष्टि के वैविध से वे विविध हैं । महावीर ने कहा -वस्तु अनन्त धर्मों का पिण्ड हैं । उसे अनेक दृष्टियों से देखो, तुम सत्य को पा जाओगे । केवल अपने को ही सत्य मत समझो, दूसरे को भी सत्य मानो । उनके इस सिद्धान्त का नाम है अनेकान्तवाद । एकान्तवाद मानसिक हिंसा है, और व्यक्ति के लिए मानसिक हिंसा भी याज्य है । Jain Education International अन्य भारतीय दर्शनों ने आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को ही नकार दिया था, प्रात्मा कुछ नहीं है जो कुछ है परमात्मा है, वही कर्ता-धर्ता और मोक्षदाता भी वही है अतः शरणागति आवश्यक है । किन्तु महावीर ने आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व के प्रति आस्था जगायी । उन्होंने कहा जन-जन ही नहीं, करण करण भी स्वतन्त्र है, अपना कर्ता-धर्ता वही है । आत्मा अनन्त दर्शन -ज्ञान-सुख और वीर्य का पिण्ड है । अपने गुणों का विकास कर वही परमात्मा बन सकता है, आत्मा परमात्मा है, नर ही नारायण है । परमात्मा तो तुममें ही छिपा है । उसी से प्रभावित होकर कबीर ने कहा - 'तेरा साईं तुझ में ज्यों पुहुपन में वास' । और अन्त में महावीर ने समस्याओं में फँसे मानव को एक ऐसा सूत्र दिया जो अकेला ही सभी समस्याओं का समाधान करने वाला है । उन्होंने कहा - 'जो तुम अपने लिए नहीं चाहते उसे दूसरे के लिए भी मत सोचो' (करने की बात तो दूर है ) किसीभी कार्य को करने से पूर्व उसे श्रात्म-तराजू पर तोलो, देखो कहीं ऐसा तो नहीं संसार के सारे झगड़े फसाद एक दूसरे की बात न मानने के कारण ही तो होते हैं । हर 1/5 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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