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________________ एवं पतन के लिये स्वयं उत्तरदायी है। वह चाहे सकेंगे। हग अपने भौतिक शरीर, भौतिक शरीर तो मिथ्यात्व का सेवन करते हुये घोरातिघोर के माध्यम से उत्पन्न परिवार के व्यक्तियों भौतिक दुःखों को भोगते हुये संसार में परिभ्रमण करता पदार्थों रूप, रस. गंध, स्पर्श से युक्त इन्द्रियों के रहे । वह चाहे तो सम्यक्त्व से. व्रतों से, तप से, विषयों को ही अपने आप को मान बैठे हैं । हमने ध्यान से, ध्यान से अपनी मात्मा का विकास कर अपना अस्तित्व इन्हें ही मान लिया है । इनसे परम सुख की प्राप्ति कर ले। प्राणी को निराश भिन्न हमारी सत्ता है या नहीं। भगवान महावीर आवश्यकता नहीं। वह अपने माप का ने हमें बताया है-ये सब पदार्थ हैं। पर प्रात्मा निर्माता स्वयं है। प्रत्येक प्राणी में एक दिव्य इन सबसे भिन्न एक अनुपम पदार्थ है । वह अपने है। प्रावश्यकता इस बात की है कि वह मूल रूप में ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति एवं प्रानन्द व का अनुसरण करता हुआ उस दिव्यता का भण्डार है। विश्व के सभी पदार्थों से अनुपम ने, पहचाने और अनुभव करे। हम जो हैं, गुणों वाला, अनन्त शक्ति का पुज हमारी यह हमारी जैसी वर्तमान स्थिति है, वह हमारे ही प्रात्मा है। एक बार अपने अन्दर झांक कर देखो का परिणाम है । हम जैसे आगे होंगे, हमारे तो सही । हमें ज्ञात होगा कि हममें महान संभावनाएँ स्वयं के कार्यों सेही होंगे । हमारी उन्नति, अवनति हैं पतित से पतित, घोर से घोर दुःखी, निकृष्ट हम पर ही निर्भर है। कोई ईश्वर या अन्य देवी से निकृष्ट प्राणी भी अपना विकास कर सकता शक्ति हमारे उत्थान, पतन के लिए उत्तरदायी है। इस बात की आवश्यकता हैं कि हम हमारी नहीं है। वर्तमान स्थिति पर शांतिपूर्वक विचार करे। हमने अब तक जो प्रयास सुख और शांति के लिए किये भगबान महावीर ने अपनी कठिन साधना से हैं, उनकी सार्थकता पर गंभीर रूप से विचार जो अनुभव के अमृत बिन्दु हमें दिये हैं उनसे सबसे करें। पूरी शक्ति से अपने भीतर झांके । हमारे प्रमुख है आत्म-दर्शन । प्राणी स्वयं अपने को देखें जो अनुभव हों, उन पर सम्यक् विचार करें। समझे एवं तदनुकूल प्रवृत्ति करें। हमारी सारी सद्ग्रन्थों के अध्ययन, चिंतन मनन तथा सत्पुरुषों शक्ति, सारे प्रमाण हमसे भिन्न बाह्य पदार्थों को के समागम एवं मार्गदर्शन को प्राप्त करते हुए समझने, प्राप्त करने तथा उनके माध्यम से सुख- हम लगन एवं निष्ठापूर्वक प्रयास करें। सच्चे सुख प्राप्ति के प्रयत्नों में ही लग जाते हैं । हम स्वयं और शांति को प्राप्त कर सकते हैं । यही भगवान क्या हैं, इसका बोध जब तक हमको नहीं होगा, का पावन संदेश हैं । इसी पर चलना उनकी पूजा हम सच्चे सुख और शान्ति की प्राप्ति नहीं कर है। उपासना है। 622 बरकत कालोनी टोंक फाटक, जयपुर 1/3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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