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________________ ari कविता पंच - कल्याणक महोत्सव रजनी थी अवशेष अभी, शीतल समीर के झौंके थे । देखे सोलह स्वप्न शयन में, मधुर मुदित शुभ सूचक वे । हम हर क्षरण हर समय देखते, वैभव के सपने लक्ष्मी, मणिमालाए अरु गज, सुन्दर । पाने को हर क्षरण तत्पर । रिक्त सिंहासन से प्रभु हमको, हो जाए पद पावे, मिल जाए सिंहासन, होगा क्या कितना संतोष | ग्रासनस्थ जब, हो जाएंगे हम सुख तोष । आपस में लड़ते दिन रात । कुर्सी की खींचा तानी में, खाते खाली घूसे लात । जड़ रत्नों में कौन सार है, Jain Education International चेतन रत्न धार अविरल । हर वर्ष बरसता भरत खंड में, एक करोड़ सजीव जन बल । बासठ कोटि रत्न भारत में, बरस गए धीरे धीरे । कहां करे संग्रह रत्नों का, कहां रखें अब ये हीरे । क्षमा करो हे भारत वासी, नील प्रजना नहीं यहां पर, D के० सी० जैन, व्याख्याता इसका नर्तन देख चुका हूं, ये है जो घूंघट वाली । स्वयं नची व मुझे नचाया, निज रूप - पाश कुशल नर्तकी विषम व्याधि ए, जग तापों में वैराग्य मुझे कैसे हो सकता, झुलसाया । आयु शेष रही इसकी । वाद्य साथ हैं साथ सगिनी, अब और रत्न न बरसाओं । जितने बरसा चुके बहुत हैं, और रहम अब तुम खायो । 4/26 पर यह काले अंजन वाली । हर संध्या के चल चित्रों में, हे त्यागी, प्रभु तेरे रहें हमारे एक समय छीना हमने प्रभु वर्ष एक तक भ्रमण किया पर, For Private & Personal Use Only राग रंग की लहर उठी । उलझाया । प्याली सुन्दर सजती है । किया न तुमने भोजन पान । हे भूख जयो प्रभु, तुम हे प्रादिनाथ भगवान । उपदेशों का हम, करते रहते जगत प्रसार । ही यत्नों से, अनगिनते जल बिना प्रहार । भोजन करते कुछ, कभी कभी करते उपवास । भोजन उनका, छोनो संपत्ति और निवास । हमारे दुष्प्रयत्नों से, नंगे उघड़े हैं कुछ लोग । www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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