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________________ प्रव्याबाध, अतीन्द्रिय अनुपम, · पुण्य-पाप से इन्द्रिय, उपसर्ग, मोह, विस्मय, निद्रा, तृषा, क्षुधा, निर्मुक्त, पुनरागमन से रहित, नित्य, अचल कर्म, नोकरी, चिन्ता, प्रार्त-रोद्रध्यान, और धर्म्य और पालम्बन से रहित है । निर्वाण (मोक्ष) शुक्ल कुछ भी निर्वाण अवस्था में नहीं होते हैं । अवस्था में इसलिए यह कहा जाता है रिणव्वाणमेव सिद्धा-सिद्धा, रणवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि, पीडा णेव विज्जदे बाहा। णिव्वाणमिति समुद्दिट्ठा । णवि मरणं णवि जणणं, कम्मविमुक्को अप्पा गज्छइ, लोयग पज्जंत ॥निय-1830 तत्थेव य होइ रिणव्वाणं ॥ अर्थात् निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही '' अर्थात् न दुःख है, न सुख है, पीडा है न बाधा निर्वाण हैं । कर्म से विमुक्त प्रात्मा लोकाग्रपर्यंत है, न मरण है और न जन्म हैं। इतना ही नहीं, जाता है । "वैशाली जन का प्रतिपालक, गण का आदि विधाता। जिसे ढूठता देश आज, उस प्रजातन्त्र की माता ॥ रुको, एक क्षण पथिक वहाँ, मिट्टी को शीश नवाओं। राजसिद्धियों की समाधि पर, फूल चढ़ाते जाओ ।। - राष्ट्र कवि दिनकर ( 3/60) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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