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________________ में भी सम्भव हैं । प्रथम प्रति-क्रमण में तपकाल के अभिप्राय (3-13) के अनुसार तीन प्रकार के योग के आश्रय से लेकर जो दोष हुए हैं उनका, दूसरे में निग्रह रूप योग प्रतिक्रमण, पांच इन्द्रियों के पान को छोड़ शेष तीन प्रकार के प्राहार के विषय निग्रह रूप इन्द्रिय-प्रतिक्रमण, शरीर के त्याग अथवा में जो दोष उत्पन्न हुए है उनका, तथा तीसरे में उसके कृशीकरण रूप शरीर-प्रतिक्रमण, सोलह उत्तम अर्थ मोक्ष के लिए पानक (पेय) के विषय में कषायों और नौ नोकषायों के निग्रह रूप कषाय भी जो दोष हुए हैं उनका परिहार जीवन पर्यन्तके प्रतिक्रमण, और हाथ-पांवों के प्रतिक्रधरण को भी लिये किया जाता है । साथ ही वह टीकाकार के करता है । इसका कारण यह है । संदर्भ 10. षट्खण्डागम पु. 1, सूत्र 16-18. आराधनासा गा. 13-15. 3. अाराधनासार वृत्ति 13. __ भगवती आराधना 2., मूलाचार (4-2) में इन चारों को वीर्याचार के साथ 'पंचाचार' रूप में ग्रहण किया गया है। संक्षेप में इन चारों आराधनाओं व उनके व्यवहार एवं निश्चय स्वरूप के जानने के लिये आराधनासार की 2-10 गाथायें द्रष्टव्य हैं। 6. मूला. 3-11. मूला. 2, 64-65. स्व्यम्भू स्तोत्र 34. मूला. 2-67. आराधनासार 17-19. 11. परमात्मा प्रकाश 1-14. भ. प्रा. मूला. टीका 26. 13. भ. प्रा. विजयों, टीका 26. 14. भ. प्रा. मूला, टीका 26; भ. पाराधना 2078. उत्तरा. चूणि पृ. 128; भ. प्रा. विजयों टीका 26; समेवा. अभय वृत्ति 17. भ. प्रा. विजयों टीका 26. 19. मूला. 2-23. 20. मूलाचार 2, 37-41. मूला. 2, 1-20. 22. मूला. 2-21. 23. इन अ दि 40 अवस्थाओं का निर्देश अनगारर्मामृत (7-99) में करते 12. (3/52 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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