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________________ क्षपक कषायों की सल्लेखना-उनको कृश नहीं 5. उपसर्ग सहन-आराधक को यदि कष्टप्रद करता है तब तक उसके द्वारा शीत-पातप आदि के उपसर्गों का सामना करना पड़ता है तो उन्हें विवेक सहन रूप बाह्य योगों के आश्रय से की गई शरीर- पूर्वक समताभाव से सहना चाहिये । कितने ही शूरविषयक सल्लेखना निरर्थक ही रहती है। चतुर्गति वीर पुरुषो ने ज्ञानमय भावना से चार प्रकार के स्वरूप संसार में परिभ्रमण कराने वाली ये प्रबल उपसर्गों को सहा है। जैसे-शिवभूति राजकुमार कषायें दुर्जेय है, उनका जब तक दमन नहीं किथा ने अचेतन-चेतना शून्य अग्नि, जल एवं पाषाण जाता तब तक जीव संयमी नहीं हो सकता और प्रादि की वर्षा जनित-उपद्रव को; सकमाल और उस संयम के बिना उसके अतिशय विशुद्ध सम्य. सूकोशलने तिर्यंचकृत उपद्रव को; गुरुदत्त राजा, ग्दर्शनादि गण सम्भव नहीं हैं। इसलिये प्राधिक यधिष्ठिर प्रादि पाण्डवों, गजकूमार एवं अन्य कितने को प्रथमतः उन कषायोको कृश करना चाहिय, ही महानभावों ने मनष्यकत उपद्रव कोः तथा श्रीभद्र जिससे वह ध्यान में स्थिर हो सके । कार्यों के कृश और सुवर्णभद्र प्रादि ने देव कृत उपद्रव को प्रात्मकर देने से मुनि के चित्त में क्षोम नहीं होता, इससे । ध्यान पूर्वक समभावना से सहा है । इस प्रकार यहां वह उत्तम धर्म स्वरूप प्रात्म स्वभाव को प्राप्त कर क्षपक को प्रेरणा की गई है कि हे मुनिवर ! जैसे इन लेता है ।27 महापुरुषों ने तथा दूसरों ने भी स्थिर चित्त होकर 4. परीषहजय-पात्म स्वरूप में स्थित होने उपसर्गों को सहा है वैसे ही तुम भी प्रात्मस्वभाव के लिये क्षुधा-तृषादि बाईस परिषहों पर विजय में मग्न होकर उनको सहन करो ।29 प्राप्त करना आवश्यक है । कारण यह कि प्राराधक यदि उन परीषहों पर विजय नहीं प्राप्त करके स्वयं 6. इन्द्रियजय-जिस प्रकार व्याध के वाणों उनके द्वारा विजित होता है तो वह संन्यास से च्युत से विद्व हुए हिरण व्याकुलमन होकर कहीं नहीं रमते होकर शारीरिक बाधा के प्रतिकार स्वरूप भोजनादि हैं और इधर-उधर वन में भागते हैं उसी प्रकार की पुनः शरण लेता है। इससे परीषहों के उपस्थित इन्द्रियों से अभिहत होकर प्राणी व्याकुल चित्त होते होने पर उसे प्रात्मसंबोधन करना चाहिये कि हे हुऐ प्रात्मध्यान अथवा शास्त्र क्षवण आदि किसी प्रात्मन् ! तूने जब परवश होकर संसार में परिभ्रमण भी उत्तम व्यापार में नहीं रमते हैं और विषयों की करते हुए अनेक दुःखों को सहा है तब इस समय और दौड़ते हैं । इस परिस्थिति में सब कुछ छोड़कर तू स्वाधीन होकर आत्म स्वभाव में मन को स्थिर और संन्यास को ग्रहण करके भी यदि विषयों की करता हुआ उन दुःखों को क्यों नहीं सहता ? स्वा- अभिलाषा बनी रहती है तो क्षपक के दर्शन, ज्ञान धीनता पूर्वक उनके सहन करने से तू शीघ्र ही सब और तप व्यर्थ रहते हैं । जब तक इन्द्रिय विषय रूप प्रशभ कर्म को नष्ट कर सकता है। जो कातर विकार मन में अवस्थित रहते है तब तक क्षपक पुरुष उन परीषह रूप योद्धाओं से भयभीत होकर राग-द्वेषादि दोषों को दूर नहीं कर सकता है । यदि चारित्र रूप रणभूमि को छोड़ देते हैं वे मार्गभ्रष्ट होकर लोक में उपहासको प्राप्त होते हुए दुःखों को विचार किया जाय तो पर द्रव्यों के समागम से भोगते हैं । यदि तुझे परीषहों से सन्ताप होता है तो प्राप्त होने वाला इन्द्रिय जन्य सुख यथार्थ सुख न तू ज्ञान रूप सरोवर में प्रविष्ट हो, जिससे निर्विकल्प होकर दुःख ही है । इसलिये सम्यग्ज्ञानी को इन्द्रियों होकर निर्वाण को प्राप्त कर सके 128 की ओर से विरत होना चाहिये ।30 ( 3/49 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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