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________________ पाश्रित होकर केवली-शुद्ध ज्ञानी संयत-मरा अरहन्तों को नमस्कार करता हुआ पाप प्रत्याख्यान करते हैं 119 टीककार आ वसुनन्दी के अभिप्राय- के साथ सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप रूप जुसार असंयतसम्यग्दृष्टियों को बाल, एकेन्द्रियों के संस्तर को अथवा पृथिवी-पाषाणादि रूप संस्तार वेष से अविरत और द्वीन्द्रियादि के वध से विरत स्वीकार करता है । इस प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिये ऐसे संयता-संयतों को बाल-पण्डित तथा संयतों को वह आत्म निन्द व गर्दा करता हा यह प्रगट करता पण्डित पण्डित समझना गहिये । इस टीका में बाल है कि मैंने जो कुछ भी दुराचरण किया है उस बालमरण को अप्रयोजनीभूत बतलाते हुए पण्डित- सबका मैं मन, वचन, काय से परित्याग करता हूं पण्डित-मरण का अन्तर्भाव पण्डितमरण प्रकट किया तथा मन, वचन काय और कृत, कारित, अनुमत गया है। स्वरूप से निर्विकल्प समाधि को करता हैं। इस प्रकार से वह बाह्य व अभ्यन्तर उपाधि, शरीर और मलाचार में आगे इन मरणों के प्रसंग में यह भोजन सबका मन, वचन, काय और कृत, कारित विशेष कहा गया है कि जो जिनवचन (जिनागम) अनुमत रूप से परित्याग करता है। वह पांचों को नहीं जानते हैं वे बेचारे भविष्य में बहुत प्रकार पापों का प्रत्याख्यान करता हया समस्त प्राणियों में के बाल-मरणों और प्रकाममरणों को प्राप्त होने समता भाव को प्राप्त होकर किसी से भी मेरा वाले हैं। शस्त्रग्रहण से, विषभक्षण से, अग्नि से, वैरभाव न रहे. इसकी भावना भाता है व समस्त जल प्रवेश से और अनाचार के सेवन से होने वाले प्रशानों को छोडकर समाधि को स्वीकार करता मरण का यहां बालमरण के रूप में निर्देश किया है। इसे सफल बनाने के लिये वह स्वयं सब जीवों गया है तथा उसे जन्म-मरण की परम्परा का कारण के प्रति क्षमाभाव को धारण करता हा सब से कहा गया है। इस परिस्थिति में क्षपक विचार क्षमा कराता है और रागानुबन्ध द्वेष, हर्ष, दीनता, करता है कि मैंने ऐसे मरण ऊर्ध्व, अधः और उत्सूकता, भय, शोक एवं रतिभरति का परित्याग तिर्यग्लोक में बहुत प्राप्त किये हैं। अब मै दर्शन करता है। वह ममत्वभाव को छोड़कर निर्ममत्व होता और ज्ञान से समन्वित होकर पण्डित मरण से है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान संवर और मरूंगा । इसी प्रकार वह उद्वेगसे-इष्टवियोग और योग में एक मात्र आत्मा का पालम्बन लेता है व अनिष्ट संयोग से जनित पीडा से होने वाले मरण शेष सब को छोड़ देता है । वह एकत्व की भावना को जन्म लेते ही अथवा गर्भ में प्राप्त होने वाले भाता हा विचार करता है कि जो वह अकेला ही मरण का (अकाममरण का) तथा नरकों में अनुभव उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है, इस प्रकार में पाने वाले अनेक प्रकार के दु-खों का स्मरण क के ही जन्म-मरण है और एक ही कर्म से निर्मक्त करता हुआ पाण्डत मरण से मरने का विचार करता होकर सिद्धि को प्राप्त करता है । ज्ञान-दर्शन स्वरूप है । कारण यह कि वह पण्डित मरण ही एक ऐसा एक प्रात्मा ही शाश्वत है, शेष सब संयोग को प्राप्त मरण है जो बहुत से जन्मों को---उनकी परम्परा बाह्य पदार्थ हैं। दुखों की परम्परा का मूल कारण को-नष्ट करता है। इसलिये जिस मरण से सुमरण जीव के साथ उनका सयोग है, ऐसा दृढ़ निश्चय होता है उसी मरण से मरना योग्य है ।20 करके वह उसे मन, वचन व काय से छोड़ देता है। प्रमद के वश होकर उसने जिन मूल व उत्तर गुणों निन्दा, गहरे वालोचना का पाराधन नहीं किया है उस सब की वह निन्दा इस प्रकार संसार, शरीर और भोगों से विरक्त व प्रतिक्रमण करता है । वह असंयम, अज्ञान, हुना क्षमक पाराधना में उद्यत होकर सिद्धों, और मिथ्यात्व और जीवाजीव विषयक समस्त ममत्व ( 3/47) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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