SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ hinitiatan a .. k ... .. .. 40. पिय मोरे घर, मैं पिय मांहि । जल तरंग ज्यों द्विविधा नांहि (बनारसी विलास, अध्यातम गीत--19) । होहुं मगन मैं दरसन पाय । ज्यों दरिया में बूद समाय (बनारसीविलास, अध्यातम गीत--9)। 41, उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा (समाधि शतक--98)। 42. रामसिंह कृत पाहुडदोहा, 177 (उद्धृत-हैमव्याकरण) । प्रात्मा व परमात्मा-दोनों समरस हैं विणि वि समरसि हुइ रहिय पुज्ज चद्रावडं कस्स (पाहुडदोहा--49)। इसी भाव को शंकराचार्य समर्थन देते हुए कहते हैं -विज्ञानमात्रमेव भूत्वा प्रज्ञानघने परे ब्रह्मण्याप द्रव समुद्रे प्रलीयते (वृहदा. उप. 2/4/11 पर शांकर भाष्य)। 43. द्र. समयसार कलश--141, 192, 138, 14, समयसार 15 पर तात्पर्यवृत्ति, समयसार गाथा-- 9 पर आत्मख्याति । 44. कार्तिकेयानुप्रेक्षा--204 (तच्चारण परमतच्चं जीवं जाणेह णिच्छयदो)। 45. 'सुन्दर' पद का अर्थ होता है-'प्रसन्न करने वाला' (सुष्ठु नन्दयति सुन्दरः) । चित्र को प्रार्द्र करने वाला (सुष्ठु उनत्ति, प्रार्दीकरोति चित्तम्, उन्दी क्लेदने)। चित्त को सरसंता से भर देने वाला (हलायुध कोष)। 'सुन्दर' के पर्यायवाची हैं-सुन्दरं रुचिरं चारु, सुषमं चारु शोभनम् कान्तं मनोरमं रुच्यं मनोज्ञ मञ्जु मञ्जुलम् (अमरकोश)।' 46. कविवर बनारसीदास के आराध्य सिद्ध परमरस के धाम हैं, सर्वांगसुन्दर हैं, मनमोहन हैं ('अवि नासी अविकार परम धाम रस धाम है, समाधान सरवंग सहज अभिराम हैं'-नाटक समयसार, 4 थी स्तुति)। जिनेन्द्र देव की कान्ति से दसों दिशाएं निर्मल हो जाती हैं (समयसार कलश-24, 216)। वे अपनी मुक्ति स्त्री के मुख को भी दीप्त-सुशोभित करते हैं—(नियमसार कलश-275)। तुलना-'देखो भाई सुन्दरता को सागर' (सूरसागर-सभा), सोभा 'सिन्धु न अन्त रही ही' (वहीं)। अर्हदेव के केवल-ज्ञान से समस्त लोकालोक प्रकाशित होता है (नियमसार कलश-291, 14, भाव पाहुड-150, 152, प्रवचनसार-1/26, 1/23, 1/31, लोयप्पदीवयरा (प्रवचनसार-1/33)। सूर्यवत् जिन (उत्त. सू. 23/78, भगवती आरा. 768, षट्खण्डागम 4/2 कार्तिकेयानु. 176)। द्रष्टव्य-नियमसार कलश-291, 177, प्रवचनसार 54 पर तात्पर्यवृत्ति, समयसार-3, समयसार कलश-11 (द्योतमानं समन्तात्), नन्दी सूत्र-स्थविरावली-3, भगवती पारा. 768, 47. द्र. नियमसार-186 48. प्रवचनसार-2/11, सभावो हि सहावो गुणेहिं सह पञ्जरहिं चित्तेहिं । दव्वस्सं सव्वकालं उप्पादव्वय धुवत्तेहिं (प्रवचनसार-2/4)। क्षणे क्षणे यन्नवतामुपेति तदेव रूपं रमणीयतायाः (माघ-4/17)। (3/28) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy