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________________ महावीर एवं बुद्ध ने इन्हीं गण राज्यों में जन्म अपनी कठोर मर्यादाओं के कारण न राजधर्म बन लिया था। गणतंत्र के आधार पर इनने अपने- बन सका और न भारत के बाहर जा सका। अपने धर्म-संघ की स्थापना की थी। दोनों ही सम्राट अशोक का पाश्रय पाकर बौद्धधर्म भारत क्षत्रिय कुल में जन्मे बे। क्षत्रिय, ब्राह्मण-पुरोहित से बाहर जा पहुंचा तथा समस्त भू-खण्ड पर फैल के प्रतिपक्षी थे। वे ब्राह्मणों को अपने से ऊंचा गया। मानने को तैयार नहीं थे। ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रति- श्रमण और ब्राह्मण परम्परा का जो उपरोक्त वादी के वचन को ब्राह्मण 'क्षत्रिय के शब्द' कहते परस्पर भेद बताया गया, वह वैदिक परम्परा के थे। पाली निकाय में क्षत्रियों को वर्णों की गणना प्रारंभ की दृष्टि से है। उसका यह रूप मुख्यतया में प्रथम स्थान प्राप्त है। ब्राह्मणकाल में रहा है। किन्तु शनैः शनैः उसने ब्राह्मण-श्रमण के स्थान पर "श्रमण-ब्राह्मण" भी आध्यात्मिक रूप ले लिया और वह बाह्य ऐसा समास पाता है। यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड को क्रियाकाण्ड से निकलकर आत्मलक्षी बन गया। न मानने वाले इन क्षत्रियों को ब्राह्मण "व्रात्य- उपनिषद-काल में उसका वही उदात्त रूप मिलता क्षत्रिय" कहते थे। किसी ब्राह्मण-पुत्र के चौकी है। उपनिषदों में यज्ञ रूपो नौका को अदढ़ बताया पर बैठ जाने पर क्षत्रिय द्वारा उस चौकी को दूध गया है, अर्थात् उसे जीवन के चरम लक्ष्य तक से धोकर साफ करने के उल्लेख मिलते हैं। इसी पहुंचाने में असमर्थ बताया गया गया है। उपकारण जैनाचार्य हेमचन्द सूरि ने इस विरोध को निषदों में ब्राह्मण-परम्परा के विरुद्ध बीज मिलने को शाश्वत-विरोध के उदाहरणों में सम्मिलित पर भी उसका खुला विरोध नहीं किया गया । किया है। श्रमण-संस्कृति जाति या राष्ट्र की अधिकारी-भेद से उसे प्रश्रय दिया गया । दृष्टि सीमाएं नहीं बनाती । उसमें मानव ही नहीं, में भेद होने पर भी नामपट्ट वही रहा। किन्तु समस्त प्राणी समान है। ब्राह्मण-संस्कृति मानब श्रमण परम्परा ने खुला विरोध किया। अब तक तथा मानव में जन्मगत भेद मानती है। उसने विचार शास्त्र उच्च वर्ग के विद्वानों तक सीमित भौगोलिक सीमाओं को भी महत्व दिया है। उसके था, परन्तु इग युग में इन श्रमणों ने इसका प्रचार, द्वारा स्वीकृत पवित्र नदियां, पवित्र पर्वत, पवित्र जनता-जनार्दन में कर उन तक उतारकर रख स्थान तथा पवित्र वन सभी भारत तक सीमित दिया । स्थान-स्थान पर घूम-घूम कर अपने है। किन्तु जन्मकाल में जातीय धर्म होने पर भी विचारों के प्रचार करने के अान्दोलन का सूत्रपात ब्राह्मण परम्परा ने विकास करते हुए विश्वधर्म भी इन्हीं श्रमणों ने किया। संघ, गण, तीर्थकर, का रूप ले लिया, जिसका परिचय उपनिषदों में जिन, महंत, बिहार चर्या, याम आदि शब्द भी मिलता है। वहां समस्त विश्व की आधारभूत व्यवहार में इसी युग में प्रचलित होते दिखाई देते एकता पर बल दिया गया है और इसे ही सत्य हैं। मत-वादों की संख्या की अधिकता भी इस बताया गया है । समस्त बाह्य भेदों को निराधार युग की विलक्षणता है। मतवादों की परस्पर तथा कल्पित बताया गया है। वर्तमान हिन्दू धर्म भिन्नता भी सहसा हमारा ध्यान प्राकृष्ट करती दोनों का मिश्रण है । यह सिद्धांत में विश्वधर्म है, है। धर्मसंस्था, समाज संस्था, दर्शन एवं अध्यात्म पर व्यवहार में जातीय धर्म । श्रमण परम्परा में सभी उथल-पुथल से प्रभावित थे। जैन धर्म सैद्धांतिक दृष्टि से विश्वधर्म होने पर भी अवकाश प्राप्त प्राचार्य, बिलासपुर (म० प्र०) (स्वतंत्रता सेनानी) 3/18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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