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________________ तद्वादोऽथ यथा स्याज्जीवो वर्णादिमानिहास्तीति तद्गुणों का ही अर्थात् वस्तु के वास्तविक धर्म का इत्युक्त न गुणः स्यात्प्रत्युत दोषम्तदेकबुद्धित्वात् ही कथन करता है। ॥1/5551 तस्मादनुपादेयो व्यवहारोऽतद्गुणे तदारोपः ।। हाँ, अतद्गुणारोपी उपचारमूलक असद्भूत इष्टफलाभावादिह न नयो वर्णादिमान् यथा जीवः व्यवहारनय मुख्यरूप से (अभिधा द्वारा) वास्तविक 11/5631 धर्म का कथन नहीं करता, अपितु वस्तु में किसी नैव यतो यथा ते क्रोधाद्या जीवसम्भवा भावाः । अन्य वस्तु के धर्म का आरोप करता है। किन्तु न तथा पुद्गल वपुषः सन्ति च वर्णादयो हि उसका उद्देश्य वस्तु के वास्तविक धर्म को ही जीवस्य ।।11555 लक्षणा द्वारा लक्षित करना होता है। जैसे 'यह बालक सिंह है' इस कथन में बालक पर सिंहत्व असद्भूत व्यवहारनय का उदाहरण देते हुए का आरोप किया गया है। इसका प्रयोजन बालक पंचाध्यायीकार कहते हैं में यथार्थतः विद्यमान करता एवं शूरता धर्मों को अपि वाऽसद्भूतो योऽनुपचरिताख्यो नयः स भवति लक्षित करना है। इसी प्रकार जीव पुद्गल कर्मों यथा। क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेद का कर्ता है, इस वक्तव्य में जीव पर पुद्गल कर्मो का कत्ता (उपादान) होने का आरोप किया गया बुद्धिभवाः ॥11546 है जो कि जीव का अपना धर्म नहीं है, अपितु उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नयः स भवति । यथा। पुद्गल द्रव्य का धर्म है। किन्तु जीव पुद्गल कर्मों क्रोधाद्याः प्रौदयिकाश्चितश्चेद् बुद्धिजा विवक्ष्याः । का निमित्त होता है। यह उसका वास्तविक धर्म है। इसे ही लक्षित करने के लिए उस पर प्रतद्स्युः ।।11549 गुणारोप (पुद्गल द्रव्य के उपादानरूप धर्म का अर्थात् अबुद्धिपूर्वक होने वाले (सूक्ष्म) प्रारोप) किया जाता है, क्योंकि उपादान और क्रोधादि भावों को जीव के भाव कहना अनुपचरित निमित्त में हेतुत्वरूप सादृश्य है। सादृश्यसम्बन्ध के असद्भूतव्यवहारनय है तथा बुद्धिपूर्वक होने वाले कारण जीव को पुद्गल कर्मों का कर्ता (उपादान) (स्थूल) क्रोधादि भावों को जीव के कहना उप- कहने से उसका पुद्गल कर्मों के प्रति जो निमित्तत्व चरित असद्भूत व्यवहारनय है। है वह लक्षित होता है। प्राचार्य अमृतचन्द्रजी ने क्रोधादिभाव जीव के निज परसापेक्षभाव हैं भी समयसार गाथा 312-313 की टीका में अतः उपर्युक्त कारिकामों में तद्गुणारोप (तद्- कहा हैगुणारोपी उपचार) को ही प्रसद्भूत व्यवहारनय "अनयोरात्मप्रकृत्योः कर्त कर्मभावाभावेऽप्यकहा गया है। न्योन्यनिमित्तनैमित्तिक भावेन द्वयोरपि बन्धो दृष्ट: ___ यद्यपि केवल तद्गुणारोपी उपचार को ततः संसारः तत एव च तयोः कर्त कर्मव्यवहारः ।" असद्भूत व्यवहारनय का लक्षण मानने से हम अर्थात् आत्मा और कर्म में कर्त कर्मभाव सहमत नहीं हैं, तथापि प्राचार्य अमृतचन्द्रजी के (उपादानोपादेयभाव) का अभाव है तो भी दोनों पूर्वोद्धृत वचनों तथा पंचाध्यायीकार के कथन से में निमित्तनैमित्तिकभाव होने से परस्पर बन्ध इतना तो प्रमाणित है ही कि असद्भूत व्यवहार- दृष्टिगोचर होता है । यह निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध नय तद्गुणारोप भी होता है । इससे सिद्ध है कि ही संसार का हेतु है और इसके कारण ही आत्मा तद्गुणारोपी उपचार मूलक असद्भूत व्यवहारनय कर्म में परस्पर कर्ता-कर्म का व्यवहार होता है । 3/11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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