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________________ कूटस्थ श्रुतकेवली प्राचार्य कुन्दकुन्द 0प्रो० श्री रंजनसरिदेव विद्वान् लेखक ने प्रस्तुत लेख में प्राचार्य कुन्दकुन्द के जीवन की घटनाओं और जैनधर्म में संघभेद पर शोधपूर्ण ऊहापोह किया है तथा 'श्रमण परम्परा के सिद्धान्त-साहित्य के प्ररूपक के रूप में कटस्थ स्थान स्वीकार किया है। -सम्पादक ब्राह्मण-परम्परा के प्राध्यात्मिक चिन्तकों प्राचार्यों की परम्परा में अद्वितीय हैं। श्रुतधर तथा भक्ति-साहित्य के सर्जकों में आदिशंकराचार्य प्राचार्य जैनवाङमय के मौलिक चिन्तक होने के का जो स्थान है, श्रमण-परम्परा में वही स्थान कारण आद्याचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं । आचार्य प्राचार्य कुन्दकुन्द का है। प्राचार्य कुन्दकुन्द युग- कुन्दकुन्द ने अपने जीवन में दिगम्बर आचार्यों के चिन्तक ही नहीं थे, युग-प्रवर्तक भी थे। इसलिए, चारित्र और गुरणों का सम्यक निर्वाह करते हए जैनों की उत्तरवर्ती परम्परा 'कन्दकन्द प्राम्नाय' अध्यात्म और भक्ति-साहित्य की सर्जना की। के नाम से विख्यात हुई। इतना ही नहीं, अपनी इसलिए, वे केवलियों या श्रुतकेवलियों की सारस्वत पुरुषार्थ-साधना के सिद्धिबल से वे, परम्परा में अंगों या पूर्वो के एकदेशज्ञता प्राचार्यों मंगलमयता के निमित्त नित्य स्मरणीय भगवान् में वरेण्य हैं । महावीर, गौतम गणधर और जैन धर्म के प्रतिरूप बन गये। मंगलस्तवन का लोकप्रथित पद्य इस श्रुतधराचार्य कुन्दकुन्द युगसंस्थापक और प्रकार है: युगान्तरकारी प्राचार्य हैं; क्योंकि उन्होंने सामान्य जनजीवन की औसत प्रतिभा के क्षीण होने पर मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गोतमो गणी । नष्ट होती हुई श्रुतपरम्परा को न केवल सुरक्षित मंगलं कुन्दकुन्दायो, जनधमाऽस्तु मगलम् ॥ रखा, अपितु उसे मूर्त रूप देने का ऐतिहासिक कहना न होगा कि गहन आध्यात्मिक चिन्तन कार्य किया । ज्ञातव्य है कि जिनवाणी की सुरक्षा और द्रव्यानुयोग के सूक्ष्मतर विवेचन के क्षेत्र में के लिए जितने प्रयत्न हुए हैं, उनमें श्रुतधर कुन्दकुन्द जैसे प्रतिभाशाली प्राचार्य की द्वितीयता प्राचार्यों का प्रयास ततोऽधिक मूल्यवान् है । नहीं है। ___ प्राचार्य कुन्दकुन्द ईसवी-सन् की प्रथम शती प्राचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर-माम्नाय के श्रुतधर के प्राचार्य थे । दिगम्बर-साहित्य के महान् 1. श्रुतधर आचार्यों के विषय में विशेष विवेचन-विवरण के लिए द्रष्टव्यः तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा': डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री, प्रथम परिच्छेद । 3/1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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