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________________ सात करोड़ ऋषियों, कपिला गायों व वेदज्ञ 11वीं शताब्दी में होय्यसल वंश की स्थापना के पण्डितों की हत्या का पाप होगा। इसी लेख में सम्बन्ध में लेख संख्या 56 (32) में उल्लेख है इसका पुण्य लाभ बताते दुए लिखा है- जो कोई कि इस वंश के सल नामक राजा की एक जैन साधु इस दान का पालन करेगा, वह दीर्घयु होगा और (सुदत्त) ने सहायता की। वैभव सुख भोगेगा। जंगल में पाते हुए एक व्याघ की ओर संकेत भूमि और ग्रामदान के साथ-साथ आहार दान करके उन्होंने राजा से कहा-पोटसल (हे सल, के भी यत्र-तत्र उल्लेख मिलते हैं । लेख संख्या इसे मारो) । सल ने तुरन्त उसे मार भगाया और 99 (224) में उल्लेख है कि अगाणि बोम्भयय के सिंह का चिन्ह अपने मुकुट पर धारण किया। तभी पुत्र काम्मेया ने सदैव एक संघ (तण्ड) को माहार से राजा का नाम पोय्सल पड़ा जो बाद में होयसल देने की प्रतिज्ञा की। इसी तरह का उल्लेख लेख हो गया। संख्या 100 (225) में दोड देवप्प के पुत्र चिकण जैनाचार्यों के धर्मोपदेश से प्रभावित गंग, के लिए हुआ है। राष्ट्रकूट, होयसल आदि वंशों के राजाओं, सामन्तों, सेनापतियों, मन्त्रियों और महिलाओं ने लोकलोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही कल्याणकारी कार्यो में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। जैनाचार्य सिंहनन्दि ने धर्मोपदेश देने के साथ-साथ राज्यों के निर्माण में भी सहयोग दिया। कहा जाता सामान्य जन जीवन पर इसका प्रभाव भी पड़ा। विष्णवर्धन नरेश के मन्त्री गंगराज को दी गई है कि गंगराज वंश की स्थापना ईसा की दूसरी उपाधियां- "बुधजनमित्र" "पाहारभयभेषज्य शताब्दी में इक्ष्वाकु वंश के दो राजकुमारों दडिग शास्त्र दानविनोद," "भव्यजनहृदयप्रमोद," धर्मऔर माधव के उत्तर भारत से दक्षिण भारत में हर्योद्धरणमूलस्तम्भ, द्रोहधरट्ट,-इस कथन की पाने से हई । उनकी भेंट पेरूर नामक स्थान में सूचक हैं । जैन साधुओं का तो सम्पूर्ण जीवन ही जैनाचार्य सिंहनन्दि से हुई। एक पत्थर का स्तम्भ ज्ञानदान और धर्मोपदेश के लिए समर्पित है । उनके साम्राज्य की देवी के प्रवेश के मार्ग को रोके हमा उपदेशों के प्रभाव के कारण ही दक्षिण भारत में था। सिंहनन्दि की आज्ञा से माधव ने उसे काट डाला और वे राज्य के शासक बन गए। एक शाकाहार की प्रवृत्ति, जीवन में सादगी, और संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम की विशेष प्रवृत्ति शिलालेख में लिखा है कि जब उन्होंने सम्पूर्ण दृष्टिगत होती है। राज्य पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया तो है प्राचार्य सिंहनन्दि ने उन्हें इस प्रकार शिक्षा दी- 4. सार्वजनीनता-जैन धर्म प्रात्म पुरुषार्थ "यदि तुम अपने वचन को पूरा न करोगे या जिन को जाग्रत कर चेतना के चरम विकास-परमात्मशासन को साहाय्य न दोगे, दूसरों की स्त्रियों का पद की प्राप्ति का धर्म है। यह किसी जाति, वर्ग, अपहरण करोगे, मद्य-मांस का सेवन करोगे, नीचों सम्प्रदाय, लिंग या वर्ग विशेष तक सीमित नहीं की संगति में रहोगे, आवश्यक होने पर भी दूसरों है। इसके अनुयायियों और प्रचारकों में ब्राह्मण, को अपना धन नहीं दोगे और युद्ध के मैदान में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी रहे हैं । जैन साधुओं पीठ दिखायोगे तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जाएगा। ने सभी को प्रात्मोत्थान का उपदेश दिया है। सिंहनन्दि के इस उपदेश में एक आदर्श राजा के आहार, औषधि और अभयदान की योजना सभी कर्तव्यों की ओर ध्यान इंगित किया गया है। वर्गों के हितार्थ की गई है। शिलालेखों से पता 2/30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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