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________________ परम्परा नहीं, अपितु अहिंसा की है, प्रेम की है। भाग के नाम से प्रकाशित हुआ है जिसमें 500 पर प्रहार के लिए उठा हा हाथ खाली कैसे लेख संगृहीत हैं। इनके अध्ययन से श्रवण-बेलगोला जाए? उन्होंने विवेक से काम लिया। अपने उठे के ऐतिहासिक, राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं हए हाथ को अपने ही सिर पर दे मारा और बालों सांस्कृतिक महत्व पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। यहां का लुचंन करके वे श्रमण बन गये । उन्होंने ऋषभ- हम इसके धार्मिक एवं सामाजिक महत्व पर निम्नदेव के चरणों में भावपूर्ण नमन किया, कृत अपराध लिखित बिन्दुओं के आधार पर विचार करने का के लिए क्षमा मांगी और उग्र तपस्या कर कर्मों का प्रयत्न कर रहे हैंक्षय कर मुक्त बने। 1. गौरवपूर्ण भव्य अतिशय क्षेत्र-श्रवणचक्रवर्ती भरत ने वाहुबली की इस प्रात्मवीरता बेलगोला प्राचीन अतिशय क्षेत्रों में अपना विशेष को अपना प्रादर्श मानकर उनके चरणों में पहुंच महत्व रखता है । यहां अनेक पूज्य प्राचार्यो. कर उनकी पूजा एवं भक्ति की तथा उनकी स्मृति साधुओं और साध्वियों ने उपसर्ग सहन कर, अपने में पोदनपुर में उनकी शरीराकृति के अनुरूप 525 प्रात्मबल का चमत्कार प्रकट किया है तथा अगणित धनुष प्रमाण एक प्रस्तर मूर्ति स्थापित करवायी। साधकों ने धर्माराधना और संलेखना व्रत की परि पालना कर अपना उद्वार किया है। यहां पर कई कालान्तर में उस मूर्ति के आसपास का प्रदेश तीर्थकरों, शासन देव-देवियों तथा महान् साधकों कुक्कुट सॉं से आच्छादित हो गया और उसके की अतिशयपूर्ण दिव्य मूर्तियों और मन्दिर स्थित दर्शन अलभ्य तथा दुर्लभ हो गये । इस स्थिति में हैं जिनका शान्तिपूर्ण दिव्य प्रभाव दर्शकों पर पड़ें गंगनरेश राचमल्ल । (रायमल्ल) चतुर्थ के मंत्री बिना नहीं रहता । गोम्मटेश्वर बाहुबली की और सेनापति चामुण्डराय ने अपनी माता की खडगासन मूर्ति संसार की पाश्चर्यकारी वस्तुओं में इच्छापूर्ति के लिए श्रवणबेलगोला में ही एक वैसी से है : डॉ० हीरालाल जैन के शब्दों में सिर के मूर्ति स्थापित करने का निश्चय किया। उन्होंने बाल घुघराले, कान बड़े और लम्बे, वक्षस्थल चन्द्रगिरि पर खड़े होकर एक तीर मारा जो लम्बा व चौड़ा, विशाल बाहु नीचे को लटकते हुए विन्ध्य गिरि। इन्द्रगिरि । पर किसी चट्टान में जा और कटि किंचित् क्षीण है । मुख पर अपूर्व कांति लगा। इस चट्टान में उनको गोम्मटेश्वर के दर्शन और अगाध शांति है । घुटनों से कुछ ऊपर तक हुए । चामुण्डराय ने अपने गुरु नेमिचन्द्राचार्य की बमीठे दिखाये गये हैं जिनसे सर्प निकल रहे हैं । देखरेख में सन् 981 में इस भव्य मूर्ति का निर्माण दोनों पैरों और बाहुओं से माध्वी लता लिपट रही कराया। यह उत्तराभिमुखी है और हल्के भूरे रंग है तिस पर भी मुख पर अटल ध्यानमुद्रा विराजके महीन कणों वाले कंकरीले पाषाण को काट कर मान है । मूर्ति क्या है, मानों तपस्या का अवतार बनायी गयी है। इस मूर्ति की प्रतिष्ठापना से श्रवणबेलगोला कवि बोघण ने शिलालेख संख्या 84 (234) का महत्व राष्ट्रीय सीमा को पार कर अन्तर्राष्ट्रीय में मूर्ति की स्तुति करते हुए लिखा है 'यदि कोई क्षितिज तक व्याप्त हो गया है। श्रवणबेलगोला मूर्ति विशाल हो तो यह आवश्यक नहीं कि वह क्षेत्र के शिलालेखों का एक संकलन डॉ. हीरालाल सुन्दर भी हो, यदि विशालता व सुन्दरता दोनों जैन के सम्पादन में जैन शिलालेख संग्रह प्रथम हो तो यह आवश्यक नहीं कि उसमें भव्यता भी 2/25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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