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________________ राज्य शक्ति के रूप में विशेष रूप से उभरा और अनेक विद्वान जैन प्राचार्यों ने जैन संस्कृति के हर पक्ष को व्यापक रूप से प्रभावित किया । उनकी प्रेरणा के जीवित साक्ष्य हैं— उत्तुंग जैन मन्दिर, भव्य एवं विशाल तीर्थकर मूर्तियां, प्रस्तर अभिलेख, पर्वत - गुफाएँ, अलभ्य जैनग्रन्थ भंडार | दक्षिण भारत के तमिलनाडु, आन्ध्र एवं कर्नाटक प्रदेश में ईसा शताब्दी पूर्व से लेकर हजारों वर्षो तक जैनधर्म खूब फला-फूला। कर्नाटक तो जैनधर्म का घर माना गया है। यहां के गंग, कदम्ब, राष्ट्रकूट, चालुक्य एवं होयसल राजवंशों ने जैनधर्म को संरक्षण प्रदान कर उसकी प्रभावना में अद्भुत योगदान किया । राजन्य वर्ग ही नहीं सामान्य जनता भी जैनधर्म के प्रचार-विचार से काफी हद तक प्रभावित हुई । इस धर्म चेतना और श्रात्म जागरण का प्रतीक है श्रवणगोऐलगोल तीर्थ और उसकी प्राकर्षरण केन्द भगवान् बाहुबली की 57 फुट ऊँची भव्य प्रतिमा । धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से नहीं, वास्तु कला एवं पुरातत्व की दृष्टि से भी श्रवरणेवलगोल मानव संस्कृति की अमूल्य निधि है । मानवता का भविष्य किसमें हैं - युद्ध और रक्तपात में या तप और वैराग्य में ? इसका सचोट उत्तर इस तीर्थ के प्रत्येक मन्दिर, अभिलेख, गुफा, प्रतिमा आदि से मिलता हैं । प्राणिमात्र के कल्याण की कामना लिपटी हुई है इस तीर्थ से । जो स्वयं के तिरने में व दूसरों को तारने में सहायक बनता है वही तीर्थ हैं । इस दृष्टि से यह तीर्थ एक ओर अपनी प्राकृतिक छटा और पूर्व कला वैभव से मन को प्राकषित प्रभावित करता है तो दूसरी ओर यहां के पवित्र वातावरण में जिन अद्भूत प्राचार्यो, राजानों सामन्तों, मंत्रियों और अन्य लोगों ने व्रत- प्रत्याख्यान कर तपसाधना की हैं, अपने जीवन को सार्थक एवं मंगलमय बनाया है, उनसे जीवनोत्थान एवं धर्म अराधना की विशेष प्र ेरणा और Jain Education International शक्ति मिलती है । इस तीर्थ के दर्शन मात्र से मानस - तीर्थ छलकने लगता है, उसमें प्रेम, मैत्री, करूणा, तप, त्याग संयम प्रादि सद्भावनाओं की लहरें तरंगित होने लगती हैं । श्रवबलगोल के साथ जहां अनेक पुरुषों तथा प्रतापी नरेशों, वीर सामन्तों, अद्भूत योद्धाओं की स्मृतियां लिपटी हुई हैं वहां नारियां भी पीछे नहीं रही हैं । मन्दिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, पूजा अभिषेक समाधिकरण, व्रत- प्रत्याख्यान दानादि, सब में नारियों ने अपने व्यक्तित्व और कर्तृत्व की विशेष छाप छोड़ी हैं। यहां तक कि गोम्टेश्वर बाहुबलि की विश्वविख्यात मूर्ति के निर्माण के मूल में प्र ेरणास्रोत एक नारी ही रही है । कहा जाता है कि गंगनरेश राचमल्ल चतुर्थ के मंत्री और सेनापति चामुण्डराय की माता काललदेवी ने जैनाचार्य जिनसेन से पोदनपुर में स्थित गोम्मटदेव की सुन्दर एवं भव्य प्रतिमा का वृत्तान्त सुना तो उन्होंने प्रण किया कि जब तक गोम्मटदेव के दर्शन न कर लूंगी, तब तक दूध नहीं लेऊंगी। अपनी पत्नी प्रजितादेवी से जब चामुण्डराय को माता की प्रतिज्ञा के बारे में जानकारी मिली तो वे उन्हें लेकर पोदनपुर की यात्रा पर चल पड़े । पर यह मार्ग अत्यन्त दुर्गम था । मूर्ति के दर्शन दुर्लभ थे । अतः मां की इच्छापूर्ति के लिए चामुण्डराय ने विध्यागिरि पर ही वैसी मूर्ति स्थापित कराई । मूर्ति स्थापित हो जाने के बाद उसके अभिषेक की तैयारियां शुरू हुई । चामुण्डराय ने मनों दूध अभिषेक के लिए एकत्र कराया पर उस दूध से मूर्ति के जंघा से नीचे का अभिषेक नहीं हो सका । अभिषेक की सम्पन्नता - संपूर्णता में भी एक सामान्य नारी ही सहायक बनी । जब गुरु की सलाह पर एक वृद्धा भक्तिजन गुल्लकायज्जि के कटोरे में निहित अल्प दूध से अभिषेक कराया गया तो वह मस्तक पर छोड़ते ही पूरे शरीर पर सर्वागों तक 2/17 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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