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________________ दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति या अस्वी- होती है और उसी आसक्ति या राग से तृष्णा उत्पन्न कृति का नहीं है अपितु वैयक्तिक और सामाजिक होती है । गीता कहती है 'सतत् सानिध्य से काम जीवन में समत्व के संस्थापन का है। अत: जहां (तृष्णा) उत्पन्न होता है और उससे क्रोधादि अन्य तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक उप- विक्षोभ उत्पन्न होते हैं जो कि अन्त में सर्वनाश की लब्धियाँ उसमें साधक हो सकती हैं, वहां तक ओर ले जाते हैं' (२:६२-६३)। इसी तथ्य का वे स्वीकार्य हैं और जहां तक वे उसमें बाधक संकेत उत्तराध्ययन सूत्र में राग-द्वेष को कर्मबीज हैं, वहीं तक त्याज्य हैं। भगवान महावीर ने कहकर किया गया है। (३२:७-८) वस्तुतः आचारांग एवं उत्तराध्ययन सूत्र में इस बात को वैयक्तिक जीवन की विषमताएँ हैं-राग-द्वेष की बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे वृत्ति, वैचारिक आग्रह और अधिकार की भावना कहते हैं कि जब इन्द्रियों का अपने विषयों से (संग्रह वृत्ति)। यही वैयक्तिक जीवन की विषसम्पर्क होता है, तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप मताएँ सामाजिक जीवन में वर्ग-विद्वेष (जातिवाद), सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में सम्प्रदायवाद और शोषण वृत्ति के रूप में कार्य यह शक्य नहीं है कि इन्द्रियों का अपने विषयों करती हैं। हिंसा, वाद-विवाद और संघर्ष इसी का से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या परिणाम है। इस प्रकार राग या प्रासक्ति एवं दुःखद अनुभूति न हो, अतः त्याग इन्द्रियानुभूति का तद्जनित तृष्णा ही समस्त वैयक्तिक एवं सामानहीं अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले जिक तथा आध्यात्मिक एवं भौतिक तनावों एवं राग-द्वेष करना है, क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ संघर्षों का मूल कारण है। किन्तु हमें यह ध्यान या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष रखना होगा कि जीवन में विक्षोभों, तनावों एवं (मानसिक विक्षोभों) का कारण बनते हैं अनासक्त संघर्षों की उपस्थिति होते हुए भी, वे हमारी चेतना या वीतराग के लिए नहीं । अतः जैन धर्म की के स्वाभाविक लक्षण नहीं हैं। इसीलिए जैन मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के विचारकों ने वैयक्तिक जीवन में निराकुलता और निषेध की नहीं। क्योंकि उसकी दृष्टि में ममत्व सामाजिक जीवन में शान्ति के हेतु ममत्व के या प्रासक्ति ही वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की विसर्जन के द्वारा उस समत्व के प्रकटीकरण पर समस्त विषमताओं का मूल है। बल दिया है जोकि यही हमारा निजगुण या .... . स्वभाव लक्षण ह .... ..... .. जीवन की विषमताएं क्या और क्यों ? सतत् शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के समत्वयोग : वर्तमान संघर्षों का उपचार अभ्यास से चेतन बाह्य उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं समत्व हमारा निज स्वरूप है क्योंकि जहां भी से प्रभावित होने की प्रवृत्ति विकसित कर लेता जीवन है, चेतना है, चाहे वह कितनी ही प्रसुप्त है। अन्य पदार्थों में रस लेने की इस प्रवृत्ति से क्यों न हो वहां हमें समत्व की प्राप्ति के प्रयास परिअज्ञान के कारण उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न लक्षित होते हैं । चैत्त जीवन का स्वभाव बाह्य एवं 1. प्राचारांग सूत्र 2015 2. न काम भोगा समयं उति न यावि भोगा विगई उति । जे ताप प्रोसी य परिग्गसी य सो तेसु मोहा विगई उवेइ ।।--उत्तराध्ययन 321101 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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