SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की सन्तुष्टि में ही है। वह मानव की भोग-लिप्सा कारण का उच्छेद नहीं कर सकता, जिससे यह की सन्तुष्टि को ही उसका चरम लक्ष्य घोषित कर दुःख परम्परा की धारा प्रस्फुटित होती है। वे देती है। यद्यपि वह एक आरोपित सामाजिकता उत्तराध्ययन सूत्र में कहते हैं कि "कामाणुके द्वारा मनुष्य की स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक गिद्धिप्पभवं खु दुक्खं जं काइयं माणसियं च किंचि" वृत्तियों का नियमन करना अवश्य चाहता है, किन्तु अर्थात् समस्त भौतिक एवं मानसिक दुःखों का मूल इस आरोपित सामाजिकता का परिणाम मात्र कारण कामासक्ति है। भौतिकवाद के पास इस इतना ही होता है कि मनुष्य प्रत्यक्ष में शान्त और कामासक्ति या ममत्व बुद्धि को समाप्त करने का सभ्य होकर भी परोक्ष में प्रशान्त एवं उद्दीप्त बना कोई उपाय नहीं है । न केवल जैन धर्म ने अपितु रहता है और उन अवसरों की खोज करता है लगभग सभी आध्यात्मिक धर्मों ने इस बात को जब समाज की आंख बचाकर अथवा सामाजिक एकमत से स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का आदर्शों के नाम पर उसकी पाशविक वृत्तियों को मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्व बुद्धि है। छद्म रूप में खुलकर खेलने का अवसर मिले। यदि हम मानव जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भौतिकवाद मानव की पाशविक वत्तियों के नियंत्रण भ्रष्टाचार एवं तद्जनित दुःखों से मुक्त करना का प्रयास तो करता है, किन्तु वह उस दृष्टि चाहते हैं तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का परित्याग का उन्मूलन नहीं करता है, जो कि इन पाशविक कर उस आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना वृत्तियों का मूल उद्गम है । उसका प्रयास जड़ों होगा जिसके अनुसार भौतिक सुख-सुविधाओं की को सींचकर शाखाओं के काटने का प्रयास है। उपलब्धि ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। वह रोग के कारणों की खोज कर उन्हें समाप्त हमें यह मानना होगा कि दैहिक एवं आर्थिक नहीं करता है अपितु मात्र रोग के लक्षणों को मूल्यों से परे अन्य उच्च मूल्य भी हैं । आध्यात्मिक दबाने का प्रयास करता है। यदि जीवन की मूल दृष्टि अन्य कुछ नहीं, अपितु इन उच्च मूल्यों की दृष्टि भौतिक उपलब्धि और दैहिक वासनाओं की स्वीकृति है। जैन धर्म के अनुसार अध्यात्म का सन्तुष्टि हो तो स्वार्थ और शोषण का चक्र कभी अर्थ है पदार्थ को परम मूल्य न मानकर प्रात्मा भी समाप्त नहीं होगा। उसके लिए हमें जीवन के को परम मूल्य मानना । पदार्थवादी दृष्टि मानवीय उच्च मूल्यों के आदर्शों को स्वीकार करना होगा। दुःखों और सुखों का आधार "वस्तु" या बाह्य जब तक एक आध्यात्मिक दृष्टि के आधार सामा- परिस्थिति को मानती है, उसके अनुसार सुख-दुःख जिकता को विकसित नहीं किया जाता है तब तक वस्तुगत तथ्य है । अतः भौतिकवादी मानस सुख आरोपित सामाजिकता से मानव जीवन की स्वार्थ की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और उनके एवं शोषण की वृत्तियों का वास्तविक रूप में संग्रह हेतु स्तेय, शोषण एवं संघर्ष जैसी सामाजिक शोधन असम्भव है। बुराईयों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैन अध्यात्म हमें यह सिखाता है कि सुख-दुःख का मूल भगवान महावीर ने इस तथ्य को गहराई से । स केन्द्र वस्तु में न होकर प्रात्मा में है। महावीर समझा था, कि भौतिकवाद मानवीय दुःखों की कहते हैं सुख-दुःख प्रात्मकृत है। बाहर न कोई मुक्ति का सम्यक् मार्ग नहीं है, क्योंकि वह उस शत्रु है और न कोई मित्र । प्रात्मा ही अपना मित्र 1. कामारणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं जं काइयं माणसियं च किंचि ।-उत्तराध्ययन सूत्र 3219 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy