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________________ तो उसकी आसक्ति में निहित है। उसके प्रति अपने दर्शन, उनकी एक और अनुपम दिव्य देशना जिसने ममत्व भाव में हैं । मानव यह सोचकर चले कि आज के विद्वान् और विवेकी मनीषी को सर्वाधिक स्वयं अभावग्रस्त होने की स्थिति में वह अन्यों से प्रभावित किया है। कहते थे “यह अनेक बिलों क्या अपेक्षा करेगा। व्यक्ति किसी भी क्षण अपने वाला चूहा है, इसे पकड़ पाना बड़ा मुश्किल है । को समाज से, राष्ट्र से अलग समझकर सुखपूर्वक एक बिल में हाथ डालता है तो यह दूसरे में चला जी नहीं सकता। परस्पर समर्पित भाव से जीने जाता है ।" तो कोई भी एक व्यक्ति, वर्ग अथवा में ही उसका हित है और देश में असली समाज- पथ बांध कर नहीं रख सकता। सचाई दूसरे की वाद लाने की दिशा में एक अनुपम कदम। बातों में भी विद्यमान होती है। केवल अपनी ही बात को सत्य मानकर बैठ जाना तथा उसे सत्यान्वेषी अनेकान्त दर्शन - "वत्थु सहावो औरों पर थोपना दुराग्रह है, हठधर्मी है। वह धम्मो” और धर्म एक द्रव्यात्मक होकर भी अनन्त अपने ज्ञानाभाव का संकेत भी है। महावीर स्वयं पर्यायी है । यह सिद्धान्त अनादि है जो भगवान् यदि कोई वेदों का ज्ञाता उनके पास आता तो वे ऋषभदेव के काल से बराबर चला आ रहा है; उसका समाधान वेदों के प्राधार पर ही करते । परन्तु महावीर के काल तक पहुंचते-पहुंचते किसी ऐसे ही यदि कोई गीता का अध्येता उनके पास एक या कुछेक पर्यायों के समूह को ही पूर्ण धर्म पहंचता तो उसका समाधान गीता का प्राधार लेकर माना जाने लगा। पर्याय विशेष को ही धर्म एवं करते । महावीर के इस दर्शन पर चलकर मानव सत्य मानने वाला अन्य पर्यायी-धर्मों की सत्यता एक दूसरे की बातों, विचारों में जो सत्य दबा पड़ा को स्वीकारने से मुकरने लगा। तो इससे जन्पी हो, उसे भी मानते हए सहिष्रगुभाव से सत्यग्राही असहिष्णुता और होने व बढ़ने लगे पारस्परिक बन जाय और उसके आधार पर समन्वयवादी रवैया विवाद। मिथ्यात्व को भी अवसर मिला अपने अपनाने लगे बजाय इसके कि वह अपनी ही बात को पैर फैलाने का। ऐसे समय में महावीर ने उद्घोष सत्य मान कर अडिग रह जाय तथा उसे अन्यों से किया कि एक ही पर्याय को पूर्ण-धर्मी-पदार्थ मान मनवाने के लिए बेजा दबाब डाले अथवा दुराग्रह करे बैठना उस अंधे की सी दृष्टि है जो केवल उसके तो प्रतिदिन के अनेकों संघर्ष, तनाव चाहे वे वैयक्तिक हाथ से छुए जा सकने वाले हाथी के अंग को ही शारिक हो सामाजिक हों. धार्मिक हों अथवा पूरा हाथी मान बैठता है। ऐसी मान्यता ही सारे राजनैतिक हों टाले जा सकेंगे। फलस्वरूप प्रापसी विवादों और अशान्ति की जड़ है । सत्यता तो __ मतभेद दूर होने से स्नेह सौहार्द का मृदु वातावरण अपनी-अपनी अपेक्षा से पदार्थ की हर पर्याय में है, बनेगा । आपसी कलह और संघर्ष में नष्ट होने वाली परस्पर विरोधी लगने वालियों में भी । उन सब शक्ति बचेगी और सब मिलकर काम करेंगे तो के सहयोग को स्वीकारना ही सत्यता है । कोई भी जीवन सुखी बनेगा और देश शक्तिशाली । काश ! छद्मस्थ ज्ञानी एक ही समय में और एक ही साथ आज का राजनीतिज्ञ भी इसका पालन करने लगे। पदार्थ धर्म के पूरे सत्य को जानने और कहने में अशक्य है । वह एक या कुछेक को ही एक साथ नारी जाति का उद्धार- महावीर ने नारी एक समय में जान और कह सकता है । अतः में, जो विलास का साधन समझी जाने लगी थी उसकी जितनी भी पर्यायें हैं उतनी ही दृष्टियों से छिपी शक्ति को अपने ज्ञान से देखा । उन्होंने ब्रह्मचर्य उसके सत्यांश को देखा, समझा और माना जाना का स्वतन्त्र विधान कर पुरुष की बढ़ती वासना पर चाहिये । यह था महावीर का सत्यान्वेषी अनेकान्त संयम का अंकुश लगाया और नारी के प्रति 1-45 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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