SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान् महावीर देहधारी होते हुए भी विदेह थे। उनकी म एमा विदह थे। उनकी मृत्यु होते हए भी मृत्युंजयी थे । संसार में रहते हुए भी वे प्रसंसारी थे। यह बताते हुए अपनी प्रौढ़ साहित्यिक विधा में विद्वान् चिंतक ने कहा है-'महावीर स्वामी की याद में बाहर आज बड़े बड़े स्मारक बनाये जा रहे हैं लेकिन भीतर के टूटते खण्डहर के जीर्णोद्धार की कोई शिल्प-साधना पैदा नहीं हो पा रही है। अपने भीतर के निर्माण के लिए शिल्पी को निमंत्रण देना होगा और उसके साथ ही भ० महावीर स्वयं प्रतिबिंबित हो जायेंगे।' काश ! कोई ऐसा शिल्पी हमारा निमंत्रण स्वीकार कर हमारे भीतर के टूटते खण्डहर का जीर्णोद्धार करे। हमारे विचार में तो हमारा भीतर खण्डहर न होकर धराशायी ही हो गया है जिसके जीर्णोद्धार की नहीं नवनिर्माण की आवश्यकता है। प्र० सम्पादक अनेकान्त आलोक में-भगवान् महावीर • श्री निहालचन्द जैन, एम. एस-सी. व्याख्याता, नौगाँव (म०प्र०) वैशाली प्राङ्गण में एक अजन्मा का जन्म . सत्पुरुषों की कंटकों भरी पीड़ानों की पगडंडियां जो जन्म, अजन्मा बनकर जनमता है, उसकी और पापबुद्धि वालों को विभूति के राजपथ प्रशस्त गोद में निर्वाण पलता है । ऐसे अजन्मा देह धारण होते हैं, तब सच्चे प्रात्मधर्म की संस्थापना और करके भी विदेही होते हैं। वे जन्म और मृत्यु की लोक की पापोन्मुख प्रवृत्तियों की विखण्डना के लिए नियतियों से उन्मुक्त होकर अपने सहज-स्वभाव को यह धरती, तीर्थङ्कर रूप महान आत्मा का आह्वान उपलब्ध होते हैं । वे मृत्यु को जीतकर मृत्युञ्जय बन करती है । केवलज्ञानी की भांति तीर्थङ्कर ज्ञानानन्द जाते हैं । ऐसे लोकोत्तर पुरुष द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव की अनन्तता में सर्वलीन होकर 'स्वानुभूति' की पूर्णता और भाव रूप पंच-परावर्तन के अकल्याण से छूट से परिपूर्ण तो होते ही हैं, अपितु वे लोक उत्कर्ष जाते हैं। ऐसे भ० महावीर थे, जो अपने परम- की अनन्त ऊर्जा की अभिव्यक्ति से युक्त भी होते हैं । औदारिक शरीर में 'तीर्थङ्करत्व' की महान गुणवत्ता अभिव्यक्ति के लिए अपने को फैलना पड़ता है और को सहेजे त्रिलोकी माँ 'त्रिशला' की कुक्षि से उत्पन्न सबको जोड़ना पड़ता है। तीर्थङ्कर महावीर 'स्व' हुये थे । महाराजा सिद्धार्थ का यह शौर्यवन्त आत्म- में प्रतिष्ठित होकर भी करोड़ करोड़ मानवों के दुःख वैभव की विरासत को लिये, चेतना की परम विशु- और दर्द को अपने साथ लेकर चले और उनसे द्धता को निष्पन्न करने तथा जगत की धर्मग्लानि विमुक्ति की एक सृजनशील दिशा दी। को मेटने वैशाली के प्राङ्गण में अवतरित हुआ। पूर्व पर्यायों का पर्यावलोकन और अनुभूति की पहली तीर्थङ्कर का यह अवतरण अकारण नहीं हुआ किरण करता अपितु लोकाभ्युदय की एक गहरी प्यास उन्हें अनुभूति की पहली किरण पुरुरवा पर्याय में भ० पुकारती है। महावीर को मिली थी। जहाँ योगिराज सागरसेन तीर्थङ्कर के आह्वान में धरती की पुकार की उद्बोधना से भिल्लराज का प्रतिशोधी एवं हिंसक जब जगत में धर्म के नाम पर अधर्म की प्रतिष्ठा, मन, प्रायश्चित्त से गीला होकर अहिंसा की भाव महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy