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________________ पार्वाभ्युदय में दो प्रकार के तपों का चित्रण पत्नी इत्वरिकातुल्य वसुधरा से अलग हुआ प्राप्त होता है - (१) सांसारिक आकांक्षा की पूर्ति वह शुष्क वैराग्य के कारण जिसका तलभाग के लिए किया गया तप । (२) कर्म के क्षय के पत्थरों से ऊंचा नीचा था, जिसके प्रदेश दावाग्नि लिए किया गया तप । इन दो तपों में से जैन धर्म से दग्ध थे, जहां शुष्क वृक्ष होने के कारण उपभोग में दूसरे प्रकार के तप को स्वीकार किया गया है। के योग्य नहीं थे, अनेक प्रकार के कांटों से वेष्टित क्योंकि पहले तप का प्रयोजन संसार है और दूसरे होने के कारण जो गमन करने योग्य नहीं थे, तप का प्रयोजन मोक्ष है । प्राचार्य समन्तभद्र ने ऐसे भूताचल पर गर्मी के दिन बिताता है 131 कहा है इतना सब करने के बाद भी उसका अपने भाई के प्रति वैर शांत नहीं होता है और वह भगवान् पार्श्व अपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया, तपस्विनः केचन । पर तरह तरह के उपसर्ग करता है, अतः कमठ के कर्म कुर्वते। जन्म में किया गया तप उसकी आत्मप्राप्ति में कुछ भवान् पुनः जन्म जरा जिहासया त्रयी प्रवृत्ति भी सहायक नहीं होता है। ___समधीरनारुणत् ॥ हे भगवन् ! कितने ही सन्तान प्राप्त करने के भारतवर्ष के साहित्य की एक प्रमुख विशेषता लिए, कितने ही धन प्राप्त करने के लिए तथा कर्म तथा उसके फल में विश्वास है । प्रत्येक पुरुष को कितने ही मरणोत्तरकाल में प्राप्त होने वाले अपने कर्म का शुभाशुभ फल भोगना पड़ता है ।32 स्वर्गादि की तृष्णा से तपश्चरण करते हैं, परन्तु यहां के समस्त शास्त्र बंधन से मुक्त होने का उपाय आप जन्म और जरा की बाधा का परित्याग करने बतलाते हैं। पार्श्व पर किया गया शम्बरासुर की इच्छा से इष्टानिष्ट पदार्थों में मध्यस्थ हो मन, का उपसर्ग उनके पूर्वकृत कर्मों का फल था, जिसे वचन, काय की प्रवृत्ति को रोकते हैं। पार्वाभ्युदय तीर्थकर होने पर भी उन्हें भोगना अनिवार्य था। में इस प्रकार के तप का आचरण करने उनकी साधना बन्धन से मुक्त होने का उपाय थी। वाले भगवान् पार्श्व हैं, जिनके सामने कठिनाई के पार्वाभ्युदय का मेष सांसारिक बाह्य आकर्षण का पहाड़ उपस्थित होते हैं, फिर भी जो जरा भी प्रतीक है । इस प्राकर्षण से सभी सांसारिक प्राणी विचलित नहीं होते है, फलतः शम्बरासुर को आकर्षित होते हैं । शम्बरासुर चाहता है कि बाह्य विफलप्रयास वाला होना पड़ता है । इसके विपरीत पाकर्षणों में पड़कर प्रावं अपनी तपः साधना को कमठ मन30 से तपस्या करता है । अपने भाई की भूल जांय अतः मेघ के माध्यम से सारे सांसारिक २६. पाश्र्वाभ्युदय ४१४५ ३०. वही ११३ ३१. यस्मिन् ग्रावास्थपुटिततलोदावदग्धाः प्रदेशाः शुष्का वृक्षा विविधवृत्तयो नोपभोग्यान गम्याः यः स्म ग्रष्मान् नयति दिवसा शुष्क वैराग्यहेतोः तस्मिन्ननौ कतिचिदबलाविषयुक्तः सकामी ॥ पावा. ११५ ३२. स्वयं कृतं कर्म यदात्मा पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 76 2-9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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