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________________ लगा देती है, तथापि जिनसेन ने अपनी रचना को हो जाता है, अतः तिरस्कर करता हुआ मैं गर्जनामों ऐसी कुशलता और चतुराई से संभाला है से भयङ्कर ध्वनि युक्त, विद्य त् के उद्योत से कि पार्वाभ्युदय के पाठक को कहीं भी भासमान शरीर वाले मेघों से इसके चित्त में क्षोभ यह सन्देह नहीं हो पाता कि उसमें अन्यविषयक उत्पन्न करूगा, अनन्तर प्रकम्पित धैर्यवाले इसे व भिन्न प्रसङ्गात्मक एक पृथक् काव्य का भी विचित्र उपाय से मार डालूगा । ऐसा सोचकर समावेश है । इस प्रकार पार्वाभ्युदय जिनसेन के उसने उपद्रव प्रारम्भ किया। जिनसेन उसकी संस्कृत भाषा पर अधिकार तथा काव्यकौशल का । मूढ़ता का परिहास करते हुए कहते हैएक सुन्दर प्रमाण है। उन्होंने जो कालिदास के काव्य की प्रशंसा की है, उससे तो उनका व्यक्तित्व क्वायं योगी भुवनमहिते दुक्लियस्वशक्तिः और भी ऊंचा उठ जाता है। महान् कवि ही __ क्वासौ क्षुद्रः कमठवनुजः क्वेभराजः क्वंदशः अपनी कविता में दूसरे कवि की प्रशंसा कर सकता क्वाऽऽसद्ध्यानं चिरपरिचितध्येयमाकालिकोऽसौ है । इस काव्य के सम्बन्ध में प्रो० के०बी० पाठक धूमज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः क्वमेघः ।। पाश्र्वा. १३१७ का मत है कि पार्वाभ्युदय संस्कृत साहित्य की एक अद्भुत रचना है। वह अपने युग की साहित्यिक अर्थात् जिसकी प्रात्मशक्ति का उल्लंघन करना रुचि की उपज और आदर्श है। भारतीय कवियों कठिन है ऐसा यह योगी कहाँ और अधम कमठ में सर्वोच्च स्थान सर्वसम्मति से कालिदास को का जीव दैत्य कहाँ ? कहां तो गजराज और कहां मिला है तथापि मेघदूत के कर्ता की अपेक्षा जिनसेन वन मक्खी ? जिसका ध्येय अपरिचित है और पूर्णअधिक प्रतिभाशाली कवि माने जाने के रूप से जिसका ध्यान शोभन है ऐसा वह योगी योग्य हैं। कहां और धुआं, अग्नि, जल तथा वायु का समुदाय यह मेघ कहां ? पार्वाभ्युदय विश्व के समस्त काव्यों में अप्रतिम है। प्राध्यात्मिक शक्ति के सामने संसार की सारी वायु में धुयें के रूप में सूक्ष्मातिसूक्ष्म रजकरण भौतिक शक्तियाँ तुच्छ हैं, वे उसका कुछ भी नहीं छाए रहते हैं । मरुत के संघर्ष से ये करण विद्युत् से बिगाड़ सकती हैं, यह दर्शाना यहाँ कवि का अभि- परिएहीत हो जाते हैं । तब वाष्प रूप में अन्तरिक्ष प्रेत है । पार्श्व के प्रति दग्धवैर शम्बरासुर में व्याप्त जल को अपने ऊपर आकृष्ट कर लेते सोचता है-चूकि मेघ का दर्शन होने पर सुखी हैं। इस प्रकार मेघ बनकर जल वृष्टि के योग्य व्यक्ति का भी चित्त अन्य प्रकार की प्रवृत्ति वाला हो जाता है। वास्तविक रूप में ऐसा मेघ १. उत्तर पुराण (प्रास्ताविक) पृ० ११ (ज्ञानपीठ प्रकाशन) २. जनल बाम्बेब्रांच, रायल एशियाटिक सोसायटी संख्या ४६ व्हा० १८ (१८६२) तथा पाठक द्वारा संपादित मेघदूत द्वि० सं० पूना भूमिका पृ० २३ आदि । ३. मेघस्तावत्स्तनितमुखरैर्विद्य दुद्योतहासः चित्तक्षोभान्द्विरदसदृशैरस्यकुर्वे निकुर्वन् । पश्चाच्चैनं प्रचलितधृति ही हनिष्यामि चित्र। मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यवृत्तिचेतः ।। पार्श्व. ११११ ४. वासुदेवशरण अग्रवालः मेघदूत एक दृष्टि पृ० ६ । 2-4 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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