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________________ आध्यात्मिकता की वह कश्मीर में गंगा बहाने वाली चर्चा करके विषय को अधिक तूल न देकर इतना थी, उसका नग्नत्व किसी की दृष्टि में हेय न था, न ही अर्ज करना चाहूंगा कि उन्हें देखकर किस दर्शन अब माना जाता है। उस नग्नत्व में पवित्रता की की दृष्टि कलुषित या पापमय हो जाती है ? वहां तरंगें उठती थीं । महावीर के नग्नत्व का वातावरण ही अकलुष होता है और महावीर के नग्नत्व से भरा वातावरण भी निष्कलुष तथा के आध्यात्मिक सागर में भी पवित्रता की तरंगें निष्पाप होता है, पवित्रता की कलिकाएं वहां मचलती हैं। यहां मैं खजूरोहो की नग्न मूर्तियों की विकसित होती हैं। वृक्ष विंशतिका हास्य कवि-५० प्रेमचन्द्र दिवाकर धर्मालंकार, बी. काम. तीन ऋतु के परिषह--जय से, सेवा सबकी करते । सेवा से मेवा, न मानव दया वृक्ष पर करते ।।१।। बिना पल्ली के शीत सहें हम, विन पंखे के गर्मी । बिन छतों के, बिन भवनों के, बरषा भी बेशर्मी ।।२।। वर्षा से उद्वेलित नदियां नौका पार लगाते । हमी बारगा बन के रक्षक, ढोर फसल न खाते ।।३।। शीत लहर से कंपते तुमको चाय तुम्हें गरमाये । सौंप संतरे तरबूजे फल गर्मी तुम्हें खिलाये ।।४।। रात-दिवस जब हो जाते हैं, जुही कमल मुस्काये। किया प्रसन्न नेहरू को हमने किसे गुलाब न भाये ॥५।। रोगी को निरोग करायें स्वयं दवाई बनके । कुटते पिसते चुरते छनते जर पत्ती फल बीजे ।।६।। महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-159 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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