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________________ जैन आचार्यों ने भावना के सम्बन्ध में बड़ा ही गहरा और व्यापक विश्लेषण किया है । सचमुच भावना का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि वह सामान्य चिन्तन से प्रारंभ होकर जप और ध्यान की उच्चतम भूमिका तक चला जाता है। ग्रागमों में भावना को कहीं अत्यन्त वैराग्य प्रधान ग्रात्मविचाररणा के रूप में लिया है, कहीं मनोबल को ढ़ करने वाली साधना के रूप में । कहीं चारित्र को विशुद्ध रखने वाले चिन्तन और आचरण को भी भावना के रूप में बताया गया है तथा मन विविध शुभाशुभ संकल्प-विकल्पों को भी भावना बताया है । भावना का महत्व भाव एक नौका है जिस पर चढ़ कर संसार - सागर से पार उतरा जा सकता है । यह धर्म रूप द्वार खोलने की कुंजी है । भाव एक औषध है जिससे भव- रोग की चिकित्सा की जाती है । भाव से रहित आत्मा कितना ही प्रयत्न करे मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकती । शास्त्रों में मोक्ष के चार मागं बताये गये हैं- दान, शील, तप और भाव । इनमें अन्तिम मार्ग भाव है । भाव के अभाव में दान, शील, तप आदि केवल ग्रल्प फलदायक होंगे । दान के साथ दान देने की शुद्ध भावना होगी, शील पालने की सच्ची भावना होगी और तप करने के सुन्दर भाव होंगे तभी वे मुक्ति के हेतु बनेंगे | अतः यह बात शत-प्रतिशत सही है कि भावशून्य आचरण सिद्धिदायक नहीं होता । तभी कहा जाता है - जो मन चंगा तो कठौती में गंगा सचमुच भगवान् का निवास शुद्ध भावों में ही है । जो लोग भावना की शुद्धि को महत्व न देकर परमात्मा को मन्दिर, मसजिद, गिरजाघर में ढूंढने का प्रयत्न करते हैं, उनसे कबीर कहते हैंमुझको कहां ढूढे बंदे, मैं तो तेरे पास में । 1-126 Jain Education International ना मैं मक्का, ना मैं काशी, ना काबे कैलास में ।। मैं तो हूं विस्वास में ॥ और परमात्मा को पाने के लिये वे कर का मनका छोड़कर मन का मनका फेरने की बात कहते हैं । मात्र माला के मरिगयों को फेरने से प्रभु नहीं मिलेंगे, उनसे मिलने के लिये तो मन को शुद्ध करना होगा । "पद्मपुराण" में भी एक प्रसंग आता है । एक बार नारदजी भगवान् विष्णु से पूछते हैं कि भगवन् ! आपका निवास स्थान कहां है ? विष्णु ने उत्तर दिया नाहं वसामि वैकुण्ठे, योगिनां हृदये च न । मद् भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद ! || अर्थात् न मैं वैकुण्ठ में रहता हूं न शेषशय्या पर और न योगियों के हृदय में, किन्तु मेरे भक्त जहां भावना के साथ मुझे पुकारते हैं, मैं वहीं उपस्थित रहता हूं | भावना के प्रकार यों तो भावना के अलग-अलग दृष्टियों से अनेक प्रकार किये गये हैं पर मूलतः भावना के दो भेद हैं- प्रशुभ भावना और शुभ भावना | शास्त्रीय भाषा में इसे क्रमशः संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट भावना भी कहा जाता है । अशुभ भावना मन जब राग-द्वेष, मोह आदि के अशुभ विकल्पों में उलझ कर निम्न गति करता है, दुष्ट चिन्तन करता है तब वह चिन्तन अशुभ भावना कहलाता है । यह अशुभ भावना जीव की दुर्गति का कारण बनती है, उसे पतन की ओर ले जाती है । प्रशुभ भावना बड़े-बड़े तपस्वी मुनियों को भी नरक गति अथवा दुर्गति में ठेल देती है । महावीर जयन्ती स्मारिका 76 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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