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________________ 1-40 एक महत्वाकांक्षी क्षत्रिय पुत्र थे । उनके पिता का बोल सकते थे कि-"मेरी प्राज्ञा में धर्म है" राज्य छोटा था। प्रचलित परम्परा के अनुसार अपितु वे व्यक्ति के स्वतन्त्र-चिन्तन की कितना वे उसके उत्तराधिकारी होते । पर महावीर महत्व देते थे, यह पढिए उन्हीं के शब्दों मेंको इतने छोटे से राज्य का शासक होना पसन्द “मइम पास"-हे मतिमान् ! तू देख। तू नहीं था। प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने दूसरा मार्ग स्वयं चिन्तनशील है अतः स्वयं तत्व को पहचान । चुना । संन्यास स्वीकार कर कठोर साधना की। क्या आदेशात्मक पदावलि इतनी सुकोमल हो सकतीहै ? लोक-संग्रह किया और बहुत बड़ा धार्मिक-समाज महावीर ने कभी नहीं कहा-जो मैं कहता खड़ा कर लिया। क्षत्रिय-सुलभ हुकूमत की नीति हूं, वही तुम मानो। प्रत्युत उन्होंने कहा—“से तं मोर साम्राज्यवादी मनोवृत्ति मिटी नहीं थी इसलिए जाणह, जमहं बेमि ।"-जो मैं कह रहा हूं, तुम वे अपने धर्म-समाज पर छा गए मोर हुकूमत की भी उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति करो। भाषा में बोले-"प्राणाए मामर्ग धम्मं ।"-मेरी उन्होंने कहा-पाप कर्म प्रकरणीय है प्रतः माज्ञा में धर्म है । अतः जो मैं कहूँगा, वही तुम्हें तुम उनका अन्वेषण मत करो। पर इसलिए नहीं करना है, पन्यथा धर्म भ्रष्ट हो जाओगे। इस कि मैंने उसका निषेध किया है, अपितु स्वयं अपनी प्रकार महावीर ने व्यक्ति के विचार-स्वातन्त्र्य की सम्पूर्ण-प्रज्ञा से सोचो और उनकी एषणा को हत्या कर दी।" छोड़ो–“से वसुमं सव समन्नागय पन्नाणेणं मुझे पाश्चर्य मिश्रित खेद हो रहा था, यह अप्पागोणं प्रकरणिज्जं पावं कम्म, तंणो अण्णेसि"। सुनकर . वस्तुतः यह चिन्तन तथ्यहीन, निराधार शिष्य ने भी उत्तर में यह नहीं कहा कि भन्ते! पौर भ्रामक है। जहां तक मैंने जाना और समझा। यदि आपका पादेश है तो मैं अब पाप नहीं करूंगा। है. भगवान महावीर ने वैयक्तिक स्वतन्त्रता को लेकिन उसने कहाजितना महत्व दिया और उसकी स्वतन्त्र चेतना को ___ "तं णो करिस्सामि समुट्ठाए, कुचल देने वाले धनाधीशों, मठाधीशों और सामन्तों भंता मइमं अभय विदिता।" का जितना विरोध किया उतना शायद ही किसी मंते ! मैं प्रात्मोपलब्धि के लिए समुद्यत हो महापुरुष ने किया हो। .. तत्कालीन समाज व्यवस्था में प्रचलित जाति- गया है अतः अब पाप नहीं करूंगा। क्योंकि वाद, दासप्रथा और उपनिवेशवाद, सचमुच मानवीय मैने इसमें प्रभय जाना है और पाप मय प्रवृत्ति को स्वतन्त्रता को कुचल देने वाले उपक्रम थे। महावीर स्वयं के लिए अहितकर माना है। ने उनके विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने कहा यद्यपि भगवान् ने "प्राणाए सड्ढी से मेहावी" सब प्राणी स्वतन्त्रता- प्रिय हैं। अतः उन पर कह कर साधना क्षेत्र में श्रद्धा पर बहुत बल दिया बलात् अपने विचार थोपना, उन्हें अनुशासित करना पर साथ-साथ अपने शिष्यों को तर्क संशय और और उन पर अपना आधिपत्य स्थापित करना जिज्ञासा के उन्मुक्त माकाश में उड़ान भरने की घोर सामाजिक और नैतिक अपराध है । वस्तुतः भी खुली छूट दी थी। उन्होंने कभी नहीं कहाकोई भी प्राणी किसी के द्वारा प्राज्ञापयितव्य और अहत बाणा, मुनि, स्मृति और वेदों की तरह प्रतपरिग्रहीतव्य नहीं है।' करणीय है। बल्कि उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा- जो भगवान् महावीर महान् अहिंसक थे। जबरन संशय करना जानता है, वह संसार को जानता है किसी पर अपने विचार थोपने को वे हिंसा मानते. और जो संशय करना नहीं जानता वह संसार को थे। इस स्थिति में भला हकमत की भाषा में कैसे भी नहीं जानता । 1. आचारांग 4-2-23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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