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________________ 1-38 परागलोलुपी भ्रमर जिस प्रकार से बिना सोचे विचारे कमल के अन्दर इतने प्रासक्त हो जाते हैं कि उसी में बन्द होकर अपने प्राणों को भी विसर्जन कर देते हैं । उसी प्रकार यह संसारी प्राणी हिताहित के विवेक से शून्य रहकर यह विचार नहीं करता कि इन विषयों का उपभोग महात्मा पुरुषों ने नहीं किया है- ये सर्वदा रहने वाले नहीं हैं - देखते-देखते नष्ट होने वाले हैं तथा श्रात्म स्वभाव के प्रतिकूल होकर प्रारणी को नरकादि दुर्गतियों में ले जाने वाले हैं और उन विषयों में प्रासक्त होकर भ्रमर के समान जन्म-मरण आदि के दुखों को सहन किया करता है । कर्मों की गति को नित्य प्रति सभी देखते श्रीर जानते हैं कि पूर्व पुण्य के कारण तीर्थंकर, चक्र - वर्ती, राजा, महाराजा आदि पदों की प्राप्ति होती है । पूर्व कर्म के कारण ही एक राजा बनता है 'श्रीर दूसरा जीव उसका नौकर बनता है ! यदि इस कर्म सिद्धान्त पर विश्वास करके जीव यह सोचे कि यह राजा भौर में इनका नौकर हूँ भाखिर यह विषमता क्यों ? विषमता इसीलिए है कि राजा होने वाले जीव ने पूर्व पर्यायों में शुभ कार्य करके पुण्य का उपार्जन किया है जिससे उन्हें मनवांछित सुख दास दासी अनेक रानियां लक्ष्मी एवं वैभव प्रादि प्राप्त हुए हैं और मैंने पूर्व पर्याय में ऐसे निम्न कार्य करके पाप कर्म उपार्जित किये 'हैं जिससे मुझे प्रतिक्षरण दासता सहनकर अपमान पूर्वक जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है । वैसे तो कर्मों ने किसी को छोड़ा नहीं है मर्यादा पुरुषोत्तम राम का उदाहरण सभी जानते Jain Education International हैं। एक तरफ राज्याभिषेक होने वाला है और दूसरी तरफ 14 वर्ष का घोर बनवास हो जाता है ! बनवास में भी शांति नहीं मिलती है— कभी किसी से संघर्ष, कभी किसी को रक्षा ! सीता के कर्म का उदय देखो - कहां तो इतने बलशाली बलभद्र की रानी सीता राजमहल के सुखों का उपभोग करती है औौर कहां जंगल की पथरीली भूमि पर पैदल चलकर जंगली जानवरों के मध्य निवास होता है यह है कर्म द्वारा प्राप्त सुख और दुख ! पूर्वभव में जिस जीव ने जैसे कर्म किये हैं उसके उदय में श्राने पर फल की प्राप्ति तदनुसार होती ही है ! इस कर्म सिद्धान्त को पढ़कर प्राणियों को यही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि शुभ कार्य करें जिससे पुण्योपार्जन होकर सुख प्राप्त हो । इसी सन्दर्भ में प्राचार्यों ने लिखा है देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय संयमस्तपः । दानंश्चेति गृहस्थाणां, षट्कर्मारिण दिनेदिने । अर्थात् प्रत्येक गृहस्थ को देवपूजा, गुरु की उपासना, प्राचार्य प्रणीत ग्रन्थों का स्वाध्याय, यथा शक्ति तप और संयम तथा सत्पात्र को दान ये 6 शुभ कार्य नित्यप्रति करना चाहिए जिससे पुण्य बन्ध होगा और परंपरा से सम्यक्त्व पूर्वक होने से निर्वाण की प्राप्ति भी हो जावेगी जहां पर कम का सर्वथा प्रभाव हो जाता है । सम्यक्त्व एवं संयम ग्रहण करके शुभ कर्म करते हुए अपनी श्रात्मा को पवित्र निर्मल बना लेना चाहिए यही निर्वारण महोत्सव वर्ष की सार्थ - कता होगी ! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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