SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . 1-21 रहा करते थे । एक ग्वाले ने अपने बैलों को न पाकर उन्हें चोर और धूर्त समझाइसके कानो में कीले ठोके, पर वे सब सहन करते रहे । वाचिका-जन्मादि उत्सव मनाने वाले इन्द्रादि देव उस समय कहां चले गये थे। वाचक-वे महावीर को सहायता देने के लिए आये थे, पर महावीर ने उनकी सहायता लेने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। वे अकेले ही अपने कर्म रूपी शत्रुओं से मुकाबला करते रहे । उनको तप से डिगाने के लिए कठोर यंत्रणायें दी गई पर वे अपनी साधना से किंचित भी विचलित न हुए। वाचिो -चण्डकौशिक सर्प को भी उन्होंने वश में किया था। वाचक--वश में ही नहीं किया, उसके सम्पूर्ण जीवन क्रम को बदल दिया। वह अपनी विष दृष्टि छोड़ उनके चरणों में लेट गया। उनके तेज के मागे अपने विष को प्रभाव रहित जानकर उन्हीं के चरणों में क्षमा की मूर्ति बन गया। वाचिका-साँप जैसे विषैले प्राणी को प्रात्मबोध देने वाले महावीर धन्य हैं। वाचक्र—उन्होंने विषले जीव-जन्तुमों को ही बोध नहीं दिया । अपनी उग्र तपस्या और कठोर साधना के फलस्वरूप आत्मा की सम्पूर्ण कालिमानों को धोकर ज्ञान के दिव्य प्रकाश को प्राप्त किया। उन्हें केवलज्ञान हुआ, वे सब कुछ जानने और सब कुछ देखने लगे। देवताओं ने मिलकर ज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया और समवशरण की रचना की । याचिका-समवसरण किसे कहते हैं ? वाचक-जीर्थंकर जहां उपस्थित होकर अपनी धर्म देशना करते हैं, उस स्थान को समवसरण कहते हैं । इस सभा में सभी जाति और वर्ग के लोग, क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या धनी, क्या निर्धन, बिना रोक टोक के अबाध रूप से प्रवचन सुनने के लिए पाया करते हैं। वाचिका-तीर्थंकर की देशना एवं प्रवचन किस भाषा में होते हैं ? वाचक-लोक भाषा में । महावीर ने अपनी देशना अर्द्ध मागधी में दी जो कि तत्कालीन लोक भाषा का एक प्रकार है। वाचिका-उन्होंने लोक कल्याण के लिए क्या व्यवस्था दी ? वाचक-उन्होंने कहा-समी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । इसीलिए तुम अपने पापको जितना प्यार करना चाहते हो, उतना ही प्यार दूसरे जीवों को करो। मावश्यकता से अधिक संग्रह मत करो । अधिक संग्रह करना दूसरों के हक को छीनना है । प्रप्पा कत्ता विकत्ताय, दुहाणय सुहाणय । अप्पा कामदुहा घेणु, अप्पामे नन्दणं वणं ।। हम ही अपना निर्माण और विकास करने वाले हैं, ईश्वर नहीं । उनके उपदेश का सार संक्षेप में सर्व धर्म समभाव मोर सर्व जीव समभाव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy