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________________ महावीर ने दुर्ग- लाढ़ देश की वज्रभूमि और शुभ्र भूमि दोनों में बिहार किया । वहां उन्हें अनेक विपदाएँ झेलनी पड़ी। वहां के लोग उन्हें पीटते, वहाँ उन्हें खाने को रूखा-सूखा माहार मिलता । ठहरने के लिए स्थान भी कठिनता से मिलता और वह भी साधारण । बहुत बार चारों ओर से उन्हें कुत्ते घेर लेते और कष्ट देते । ऐसे अवसरों पर उनकी रक्षा करने वाले बिरले ही मिलते । श्रधिकांश तो उन्हीं को यातना देते और उनके पीछे कुत्ते लगा देते। ऐसे विकट विहार में भी इतर साधुनों की तरह वे दण्ड प्रदि का प्रयोग नहीं करते । दुष्ट लोगों के दुर्वचनों को वे बहुत ही क्षमा-भाव से सहन करते । कभी-कभी ऐसा भी होता कि भटकते रहने पर भी वे गांव के निकट नहीं पहुँच पाते । ज्यों-त्यों ग्राम के निकट पहुंचते, अनार्य लोग उन्हें त्रास देते मौर तिरस्कार पूर्वक कहते - " तू यहां से चला जा ।" कितनी ही बार इस देश के लोगों ने लकड़ियों, मुट्टियों, भाले की अणियों, पत्थर या हड्डियों के खप्परों से पीट-पीटकर उनके शरीर में 1-7 घाव कर दिये । जब वे ध्यान में होते, तो दुष्ट लोग उनके मांस को नोचलेते, उन पर धूल बरसाते, उन्हें ऊंचा उठाकर नीचे गिरा देते, उन्हें प्रासन पर से नीचे ढकेल देते । Jain Education International महावीर की निर्जल मोर निराहार तपस्यानों का प्रामाणिक व्योरा भी अनेक परम्परा-ग्रन्थों में मिलता है । एक बार उन्होंने छः महीने का निर्जल और निराहार तप किया, एक बार पांच महीने और पच्चीस दिन का, नौ बार चार-चार महीनों का, दो बार तीन-तीन महीनों का, दो बार ढाईढाई महीनों का, छः बार दो-दो महीनों का, दो बार डेढ़-डेढ महीनों का, बारह बार एक महीने का बहत्तर बार पखवाड़े का, बारह बार तीन-तीन दिन का, दो सौ उनतीस बार दो दो दिन का और एकएक बार भद्र, महा-भद्र, सर्वतो भद्र प्रतिमा का तप किया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है, भगवान् महावीर ने अपने अकेवली जीवन के 4515 दिनों में केवल तीन सौ पच्चास दिन अन्न व पानी ग्रहण किया। 4165 दिन तो तप में बीते । मन्य सब तीर्थंकरों की अपेक्षा महावीर के तप को उम्र बताया गया है । आत्मा अप्पा कामदुहा घेणु अप्पा में नन्दणं वरणं । यह श्रात्मा ही कामधेनु है और यह प्रात्मा ही नन्दनवन ( स्वर्ग के देवताओं का क्रीड़ा स्थल ) है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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