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________________ 1-6 बासी, उड़द, सूखे भात, मंथु, यवादि नीरस धान्य का जो भी प्रहार मिलता, उसे वे शान्त भाव से और सन्तोषपूर्वक ग्रहण करते थे । एक बार निरंतर पाठ महीनों तक वे इन्हीं चीजों पर रहे । न मिलने पर भी वे दीन नहीं होते थे । पखवाड़े तक, मास तक प्रोर छः छ० मास तक जल नहीं पीते थे । उपबास में भी विहार करते थे । ठण्डा वासी प्रहार भी वे तीन-तीन, चार-चार, पांच-पांच दिन के अन्तर से करते थे । निरन्तर नहीं करते थे । स्वादजय उनका मुख्य लक्ष्य था । भिक्षा के लिए जाते समय मार्ग में कबूतर आदि पक्षी धान चुगते हुए दिखाई देते तो वे दूर से ही टलकर चले जाते । उन जीवों के लिए वे विघ्नरूप न होते । यदि किसी घर में ब्राह्मरण, श्रमण, भिखारी, श्रतिथि, चण्डाल, बिल्ली या कुत्ता श्रादि को कुछ पाने की आशा में या याचना करते हुए वे वहां देखते, तो उनकी आजीविका में बाधा न पहुंचे, इस अभिप्राय से वे दूर से ही चले जाते। किसी के मन में द्वेष-भाव उत्पन्न होने का वे अवसर ही नहीं माने देते । शरीर के प्रति महावीर की निरीहता बड़ी रोमाञ्चक थी । रोग उत्पन्न होने पर भी वे भौषध सेवन नहीं करते थे । विरेचन, वमन, तेल-मर्दन, स्नान और दन्त-प्रक्षालन नहीं करते थे । श्राराम के लिए पैर नहीं दबाते थे । श्रोखों में किरकिरी गिर जाती तो उसे भी वे नहीं निकालते। ऐसी परि स्थिति में प्रांख को भी वे नहीं खुजलाते । शरीर में खाज प्राती, तो उस पर भी विजय पाने का प्रयत्न करते । महावीर कभी नींद नहीं लेते थे । जब कभी नींद अधिक सताती, वे शीत में मुहूर्तभर चंक्रमण कर निद्रा दूर करते । वे प्रतिक्षण जागृत रह ध्यान व कायोत्सर्ग में ही लीन रहते । वसति वास में महावीर न गीतों में श्रासक्त होते थे और न नृत्य व नाटकों में; न उन्हें दण्ड- युद्ध में उत्सुकता थी और न उन्हें मुष्टि-युद्ध में । स्त्रियों व स्त्री-पुरुषों को परस्पर काम कथा में लीन देखकर Jain Education International भी वे मोहाधीन नहीं होते थे । वीतराग-भाव की रक्षा करते हुए वे इन्द्रियों के विषयों में विरक्त रहते थे । उत्कटुक, गोदोहिका, बीरासन, प्रभृति अनेक प्रासनों द्वारा महावीर निर्विकार ध्यान करते थे । शीत में वे छाया में बैठकर ध्यान करते और ग्रीष्म में उत्कटुक आदि कठोर प्रासनों के माध्यम से चिलचिलाती धूप में ध्यान करते । कितनी ही बार जब वे गृहस्थों की बस्ती में ठहरते, तो रूपवती स्त्रियां, उनके शारीरिक सौन्दर्य पर मुग्ध हो, उन्हें विषयार्थ श्रामन्त्रित करतीं। ऐसे अवसर पर भी महावीर प्रांख उठाकर उनकी ओर नहीं देखते थे और अन्तर्मुख रहते थे । गृहस्थों के साथ किसी प्रकार का संसर्ग नहीं रखते थे । ध्यानावस्था में कुछ पूछने पर वे उत्तर नहीं देते थे । वे श्रबहुवादी थे अर्थात् अल्पभाषी जीवन जीते थे। सहे न जा सकें, ऐसे कटु व्यंग्यों को सुनकर भी शान्त और मौन रहते। कोई उनकी स्तुति करता और कोई उन्हें दण्ड से तर्जित करता या बालों को खींचता था उन्हें नचाता, वे दोनों ही प्रवृत्तियों में समचित रहते थे । महावीर इस प्रकार निर्विकार, कषायरहित, मूर्छा - रहित, निर्मल ध्यान और प्रात्मचिन्तन में ही अपना समय बिठाते । चलते समय महावीर आगे की पुरुष प्रमाण भूमि पर दृष्टि डालते हुए चलते । इधर उधर बा पीछे की ओर वे नहीं झाँकते । केवल सम्मुखीन मार्ग पर ही दृष्टि डाले सावधानी पूर्वक चलते थे। रास्ते में उनसे कोई बोलना चाहता, तो वे नहीं बोलते थे । महावीर दीक्षित हुए, तब उनके शरीर पर नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन किया हुआ था। चार मास से भी अधिक भ्रमर प्रादि जन्तु उनके शरीर पर मंडराते रहे, उनके मांस को नोचते रहे और रक्त को पीते रहे । महावीर ने तितिक्षा भाव की पराकाष्ठा कर दी। उन जन्तुनों को मारना तो दूर, उन्हें हटाने की भी वे इच्छा नहीं करते थे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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