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________________ गृहस्थों के लिए उनका उपदेश था ४-इच्छाएं असीमित हैं । एक व्यक्ति की इच्छाओं की भी पूर्ति विश्व के सम्पूर्ण पदार्थ नहीं कर सकते। इच्छाएं सुरसा राक्षसी की तरह बढ़ती हैं । संसार की अशांति का कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्राकांक्षाओं की पूर्ति चाहता है। दूसरों की आकांक्षाओं से उसका कोई सरोकार नहीं। अतः अपनी आकांक्षाओं को सीमित रखो । आवश्यकता से अधिक का संग्रह मत करो। यदि तुम्हारे पास आवश्यकता से अधिक है तो लोक-कल्याण के लिए उसका वितरण करो। ५-हित, मित और प्रिय बोलो । ऐसे उपदेश मत दो जिससे लोग कुमार्ग की ओर प्रवृत हो जाय । किसी की चुगली, निन्दा आदि मत करो। किसी की धरोहर मत हरो । न किसी के धन का स्वयं अपहरण करो, न दूसरों से कराओ, न ऐसा करने वाले की प्रशंसा करो, कुमार्ग से प्राप्त सम्पत्ति का ग्रहण मत करो। ६--कानून का पालन करो । व्यवहार में ईमानदार रहो । वस्तुओं में मिलावट करके मत बेचो, पूरा नापो, पूरा तोलो, लेने और देन के बाट और माप अलग अलग मत रखो। न स्वयं अनैतिक आवरण करो और न अनैतिकता को बढ़ावा दो । ७-जैसा करोगे वैसा भरोगे । जैसा बोवोगे वैसा काटोगे । जैसा बीज होगा वैसा वृक्ष लगेगा। दुष्कार्य करके शुभ की आशा करना दुराशामात्र है । अतः यदि जीवन में सुख चाहते हो तो अशुभ कार्यों से, अशुभ प्रवृत्तियों से बचो। ३० वर्ष तक घूम घूम कर वे लोगों को ऐहिक और पारलौकिक सुख शांति का मार्ग बताते रहे । अन्त में केवल ७२ वर्ष की अल्प वय में कार्तिक कृष्ण की अमावस्था को वह दीप शिखा बुझ गई। । उनका निर्वाण हुए आज २५०० वर्ष हो गये । तथापि उनके आदर्श आज भी जीवित हैं । अ.ज भी जैन नित्य प्रति ये भावनाएं भाते हैं सत्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।। वे प्रार्थना करते हैं देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांति भगवाजिनेन्द्र ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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