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________________ की उन्होंने कोई चिन्ता नहीं की। वे एक निष्ठ होकर अपना उद्देश्य प्राप्ति हेतु साधना में लगे रहे । बारह वर्ष की कठोर साधना के पश्चात वे अपनी साधना में सफल हुए। अखण्ड ज्ञान के प्रकाश से उनका आत्मा मालोकित हो उठा, अनन्त अव्याबाध सुख की उनको प्राप्ति हुई, उनकी प्रात्मा में अनन्त शक्ति और विश्वास का अभ्युदय हुवा । उनकी आत्मा में वह तेज, वह शक्ति प्रस्फुरित हुई कि केवल उनके दर्शन मात्र से प्राणी अपना वैर विरोध भूल जाते थे। वे जहां भी जाते शांति की अजस्र धारा प्रवाहित होने लगती थी । शेर और गाय एक घाट पानी पीने लगते थे, सर्प और नकुल एक साथ क्रीड़ा करने लगते थे। वे घूम घूम कर लोगों को संमार्ग का उपदेश देने लगे । उनकी उपदेश सभा समवशरण कहलाती थी जो बिना किसी भेद भाव के प्राणी मात्र के लिए खुली रहती थी। उन्होंने अपने उपदेशों में बताया-- १-मूड मुडा लेने से कोई श्रमण, ओंकार का उच्चारण मात्र करने से कोई ब्राह्मण, वन में रहने मात्र से ही कोई मुनि और वल्कल वस्त्रों के धारण करने से ही कोई तापसी नहीं हो जाता। वेष का कोई महत्व इस जीवन में नहीं है। असली महत्व तो आचरण का है। साधुत्व और असाधुत्व की पहचान तो उसके गुणों और दुर्गुणों से होती है । गुणों से ही मानव पूज्य बनता है किसी लिङ्ग विशेष अथवा वय विशेष के कारण नहीं। २-सब जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । सब सखी रहना चाहते हैं. दुखी होना कोई नहीं चाहता अतः अपना आचरण ऐसा बनानो जिससे कोई दुखी न हो, किसी का घात न हो। __ ३–पूर्ण सत्य कहा नहीं जा सकता प्राप्त किया जा सकता है। प्रत्येक मत आंशिक सत्य का प्रतिपादन करता है। वे सब मिल कर एक पूर्ण सत्य बनते हैं अतः यह अाग्रह मत रखो कि जो कुछ मैं कहता हूं वह ही सत्य है। तुम भी सत्य कहते हो और दूसरा भी सत्य कहता है भेद है तो मात्र दृष्टिकोण का। एक दृष्टि से अमुक बात सत्य हो सकती है तो दूसरी दृष्टि से वह ही असत्य भी हो सकती है । ही और भी का समुचित प्रयोग करना जानो । सत्य ही और भी का सम्मिलित रूप है । न केवल ही सत्य है और न केवल भी। एक दृष्टिकोण से वस्तु तत्व ही है तो दूसरे दृष्टिकोण से अन्यथा होने से भी है । इसलिए अपने ही दृष्टिकोण को महत्व मत दो, दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का भी प्रयत्न करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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