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________________ 3-8 जीव री पांच जातियां हुने--(1) एकेन्द्रिय, भात जीव भर पुद्गल द्रव्यां रै गति करण में धर्म (2) द्वीन्द्रिय, (3) त्रीन्द्रिय (4) चतुरिन्द्रिय अर सहकारी कारण है । (6) पंचेन्द्रिय । क्रियायुक्त जीव पर पुद्गल ने ठहरण में जो __एकेन्द्रिय जीव र सिर्फ एक इन्द्रिय सरीर हुने। अप्रत्यक्ष रूप सू सहायता देवै वो अधर्म द्रव्य जीव पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति रा जीव एके- पर पुद्गल द्रव्यां ने जबरदस्ती नी चलावै अर नीं न्द्रिय जीव है। ठहरावै। तो निमित्त रूप सू उणारा सहायक __द्वीन्द्रिय जीवां रै स्पर्शन (सरीर) अर रसन (जीभ) में दो इन्द्रियां हुने। लट, संख, जोंक जो सब द्रव्यां नै आधार देवै वो आकास है। मादि जीव द्वीन्द्रिय है। इण रा दो भेद लोकाकास पर अलोकाकास हुवै। श्रीन्द्रिय जीवां रे स्पर्शन, रसन अर प्राण जीव, पुदुगल, धर्म, अधर्म, काल भै द्रव्य जितरा (नाक) अं तीन इन्द्रियां हुने। चींटी, कानखजूरा आकाश में ठहरै वो लोकाकास पर जठे आकास रे आदि जीव त्रीन्द्रिय है। सिवाय दूजा द्रव्य नी हुवै वो भलोकाकास कहीजे । चतुरिन्द्रिय जीवां रै स्पर्शन, रसन, पर प्राण जो द्रव्यो र परिवर्तन में सहकारी हुवै वो चक्षु (ख) में चार इन्द्रियां हुगे। मक्खी, मच्छर काल द्रव्य कही जै। घंटा, मिनट, समय मादि टिड्डी, पतंगा आदि चतुरिन्द्रिय जीव हैं। काल राईज पर्याय है। में जीव पर प्रज'ध तत्व संसार निर्माण पंचेन्द्रिय जीवां रै स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्ष रा मुख्य तत्व है । संसार अनादि अनन्त है। ई. पर श्रोत्र (कान) में पांच इन्द्रियां हुने । नारक, री रचना किणी ईश्वर नी करी । मनुष्य, देव, गाय, भैस, कागला, कबूतर प्रादि पंचेन्द्रिय जीव हैं। ३. पुण्य तत्व: 2. अजीव तत्व: .. पुण्य शुभ करम हुवे पर पाप अशुभ करम । में दोन्यू अजीव द्रव्य हैं। शास्त्रीय दृष्टि सूपुण्य जिण में चेतना नी हुवं जो सुख-दुख रो अनु रा नौ भेद हैं । वी इण भांत है-(1) अन्न पुण्य, भव नी करै वो अजीव कहीजै । अजीव तत्व जड़ (2) पान पुण्य (3) लयन (स्थान) पुण्य, (4) पर प्रचेतन हुने ; सोनो, चांदी, ईट चूनो आदि शयन (शैया) पुण्य (5) वस्त्र पुण्य, (6) मन पुण्य, मतं भर पाकास, काल आदि प्रमूर्त जड़ पदार्थ । (7) वचन पुण्य, (४) काय पुण्य पर (9) नमअजीव तत्व है । अजीव तत्व रा पांच भेद हुवै स्कार पुण्य । अर्थात अन्न, पाणी, औखध प्रादि रो (1) पुद्गल, (2) धर्म, (3) अधर्म (5) प्राकास दान करणो, ठहरण खातर जग्यां देवणी, मन में पर (काल)। । पाच्छा भाव राखणा, खोटा वचन नी बोलणा, जिण में रूप, रस, गंध पर स्पर्श हुवै । जो सरीर सूपाच्छा काम करणा, देव गुरू नै नममापस में मिल'र आकार ग्रहण कर ले पर विलग हो'र परमाणु बरण जावै वो पुद्गल है । इणां में र स्कार करणो में सगला पुण्य करम है। मिलण भर अलग होवण री मा क्रिया स्वभाव स ४. पाप तत्व : हुई। दर्शन री भाषा में मिलण री क्रिया नै पापां रा कारण अनेक हुवै पण संक्षेप में में संपात पर बिलग होणे री क्रिया नै भेद कैवे। अठारा मानी-जे । प्रै पापस्थान पण कहीजे। धर्म तत्व गति में सहायक हुवै । जियां मछली इणारा नाम इण भांत है-(1) हिंसा (2) भूठ खातर पाणी अप्रत्यक्ष रूप सू सहकारी है, उणीज (3) चोरी (4) अब्रह्मचर्य (5) परिग्रह (6) कोष - . pic . .HTAustaHANNEL Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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