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________________ 2-102 पाण्डे रूपचन्द (वि० स० 1680-1694) जिनेन्द्र के प्रति अटूट भक्ति को सार्थक अभिव्यक्ति जैन कवि बनारसीदास के परम मित्र थे। उन्होंने मिली है। अपने 'मंगल गीत प्रबन्ध' या 'पंच मंगल' में (ख) हिन्दी जैन भक्ति-काव्य में चौबीस तीर्थतीर्थ कर के यम, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष को करों की स्तुति में विपुल रचनाएं लिखी गयी हैं लेकर भक्तिपूर्ण पदों की सृष्टि की थी। यह जिनमें से एक भगवान महावीर स्वामी भी थे। अत्यन्त लोकप्रिय रचना हुई। उदयराज जती (सम्वत् 1667) ने दो सौ यशोविजय उपाध्याय (सं० 1680-1743) सवैयों में 'चौबीस जिन सर्वया' नामक कृति लिखी ने अपने पचहत्तर मुक्तक पदों के काव्य 'जस । जो कि भक्ति रस की दृष्टि से अत्युत्तम है। विलास' में जिनेन्द्र के प्रति अपनी पूर्ण भक्ति प्रकट जिन हर्ष ने पच्चीस पद्यों में 'चौबीसी' लिखी की है। जिसमें संगीतात्मक रूप में चौबीस तीर्थकरों की लालचन्द लब्धोदय (संवत् 1707) ने स्तुति मिलती है। 'पद्मिनी चरित्र' के मंगलाचरणमें भगवान जिनेन्द्र भैया भगवतीदास ने 'चतुर्विंशति जिन स्तुति' की स्तुति की है। मोर 'तीर्थकर जयमाला' नामक कृतियां लिखी । .. भैया भगवतीदास (संवत् 1731-1752) द्यानतराय ने 'दशस्थान चौबीसी' में चौबीस के 'ब्रह्म-विलास' में एक भक्त भगवान जिनेन्द्र की तीर्थकर की दस बातों का वर्णन किया है। पुष्पों से पूजा करता हुमा कामदेव से मुक्ति पाने विद्यासागर ने कुल सत्ताइस छप्पयों में भूपाल का निवेदन करता है। स्तोत्र (सम्वत् 1730) में चौबीस तीर्थकर की द्यानतराय (साहित्यिक काल संवत् 1780) स्तुति गायी है। . के 'भारती-साहित्य' में वर्द्धमान स्वामी की भी बुलाकीदास (सम्वत् 1737-1755) के चौबीस प्रारती मिलती है। भगवान महावीर की भक्ति तीर्थकरों से सम्बन्धित 'जैन-चौबीसी' में 196 में रचित चतुर्थ भारती में उनकी सम्यक् मनुष्टुप छंद हैं। स्तुति है __ लक्ष्मीवल्लभ के 'चौबीस स्तवन' नामक मुक्तक राग-विना सब जग जन तारे, काव्य में विभिन्न राग-रागिनियों के पदों में चौबीस द्वेष विना सब करम विदारे । तीर्थकरों के प्रति कवि की पूर्ण आस्था मिलती है । करों भारती वर्द्धमान की, . विनोदीलाल (सम्वत् 1760) के 'चतुर्विंशति पावापुर निरवान थान की। जिन स्तवन सवैयादि' में 71 सवैया मिलते हैं। शील धुरंधर शिवतिय भोगी, बुन्देलखण्ड के गोपीलाल जी ने भी चौबीस मनवचकायनि कहिये योगी ॥ तीर्थकरों की स्तुति गायी है। करों भारती वर्द्धमान की। (ग) मध्यकाल के हिन्दी जैन भक्ति-काव्य में पावापुर निरवान थान की। भगवान महावीर स्वामी के तत्कालीन युग और विद्यासागर (सम्वत् 1734) ने भट्ठारहवीं उनके भक्तों को भी सम्बन्धित रचनाओं में पर्याप्त शती के प्रथम चरण में नौ पद्यों की सोलह स्वप्न तथा सफल स्थान मिला है। सम्पय' नामक कृति 'जिन-जन्म महोत्सव षटपद' जिस प्रकार धर्मसूरि ने तेरहवीं शताब्दी में में भावान जिनेन्द्र के जन्मोत्सव की सुन्दर झांकी भगवान् महावीर के समकालीन और परम भक्त प्रस्तुत की है। एकादश पद्यों के 'दर्शनाष्टक तथा. जम्बू स्वामी पर 'जम्बू स्वामी रासा' लिखा था, चालीस पद्यों के 'विषापहार छप्पय' में भगवान् : उसी प्रकार पाण्डे जिनदास ने सम्वत् 1642 में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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