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________________ 2-87 ली थी। उनके साथ राजुल भी भारतीय आदर्शों का अनुकरण करती हुई उनके ही साथ गिरनार पर चली गई और परत्मोकृष्ट तपस्या धारण की । उनको यही घटना ऐसी हृदय द्रावक और मार्मिक रही कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी कवि बन गया, यहां राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त का 'साकेत' में लिखित निम्न छंद सहसा स्मरण हो पाता है कि : हे राम ! तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है। कोई भी कवि बन जाय सहज संभाव्य है । उपर्युक्त छंद में राम की जगह नेमि या राजुल शब्द रख दिया जावे और फिर विश्लेषण किया जाय तो नेमि प्रभु को भी राम का स्थान प्राप्त हो सकता है और हर व्यक्ति कवि बन सकता है यथार्थ में नेमि प्रभु और राजुल का जीवन प्रसंग इतना अधिक व्यापक और त्यागमय एवं प्रेरणादायी रहा है कि श्रद्धालुजन भावविह्वल हो अपनी श्रद्धा के सुमन किसी न किसी रूप में उनके चरणों में अर्पित करने को तत्पर हैं । नेमि प्रभु संबंधी साहित्य भारत की विभिन्न भाषाओं में विपुल मात्रा के पाया जाता है पर हिन्दी में जिन विभिन्न विधानों और लोक साहित्य के रूप में अवतरित हुमा है वह निश्चय ही बड़ा महत्वपूर्ण हैं । हिन्दी में नेमिप्रभु और राजुल से संबंधित रास, धूलि, वेलि, फागु, ध्याहलो, कडाख, मंगल, वारहमासा, सज्झाय, वत्तीसी, छत्तीसी, बहोतरी, वावनी, पच्चीसी, शतक, चूनडी, चन्द्रिका, चौपाई, कथा, चरित, पुराण, गीत, घोडी, बना, पद इत्यादि रूप में जो साहित्य प्राप्त होता है उससे नेमि प्रभु की लोकप्रियता स्पष्ट रूप से विदित हो जाती है। यहां हम सहजादपुर निवासी गर्ग गोत्रिय अग्रवाल वंशी श्री वारैलाल की सं0 1744 में रचित नेमिप्रभु का मंगल ब्याहलो शीर्षक एक रचना का परिचय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहैं है जो सर्वथा अप्रकाशित है। रचना बहुत बड़ी नहीं है केवल 73 छंद है पर हैं बड़े सरस और रोचक और हृदय को गदगद करने वाले हैं। कहीं-कहीं साहित्यिक छटा के भी अनुपम दर्शन हो जाते हैं यहां हम रचना का और अधिक विश्लेषण न करते हुए पाठकों की अभिरुचि पर ही छोड़ते हैं । यह रचना दिजैन सरस्वती भंडार धर्मपुरा दिल्ली के संस्कृत गुटका नं0 1 में पत्र 109 से 115 तक अंकित है । इसकी लम्बाई चौड़ाई 34.9x 18.9 सें.मीहै। हर पत्र पर 25 पंक्तियां और हर पंक्ति में 30 प्रक्षर हैं। इसका लिपिकाल सं० 1896 है । एक प्रति पंचायती मंदिर मस्जिदखजूर में भी मिलती है। यहां एक शंका मेरे मन में उठी है कि वारैलोल कहीं कवि विनोदीलाल का उपनाम तो नहीं क्योंकि बहुत कुछ समानता दोनों में मिलती है विद्वान पाठक इसका निर्णय करें। रचना के आदि मध्य प्रौर मन्त के कुछ अंश इस प्रकार हैं नौ मंगल नेमिनाथ जी के ___ श्री वारलाल जी कृत अजि गुरु गणधर देव मनाऊरी हाँ अजि जादौपति का मंगल गाऊरी हो । अजि ए बाँता सुनत सुहाइ हां, अजि जादौपति कुलवंस वधाऊ हां ।।। अजिजादी पति कुलवंस वधाइ गाऊं सारद देवि मनाइक। होउ कृपालु मातु मम पर नेम कुवर जस गाइये । ए मंगलाचार नेम राजुल के सुनत श्रवन सुखदाइया । होत उछाह नगर द्वारावती मंगलाचार बधाइया ।21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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