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________________ 2-86 वैसे भारत के मूर्धन्य दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी इंडियन फिलासफी भाग 2 में नेमि प्रभु की ऐतिहासिकता को स्वीकार किया है। डॉ० हरिसत्य भट्टाचार्य ने नेमि प्रभु पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ 'अरिष्ट नेमि' जो नेमिनाथ की ऐतिहासिकता सिद्ध करने वाला सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है एक जगह उन्होंने लिखा है :-When the Samavsharan of Lord Arishtanemi was reported to have come near Dwarkaji Lord Krishna went to see him with his family, Lord Krishna bowed down to Lord Arishtanemi." डाक्टर फ्यूरर ने 'एपी ग्राफी इण्डिका' भाग 1 में भगवान नेमिनाथ को इतिहास पुरुष के रूप में सप्रमाण स्वीकार किया है। - 'केम्ब्रिज हिस्ट्री प्रॉफ इण्डिया' में डा. विमल चरण ला लिखते हैं कि "अरिष्टनेमि अथवा. नेमिनाथ 22वें तीर्थंकर थे वे एक वरद क्षत्रिय धर्म प्रसारक व समाज के धुरीण हो गए हैं वे संयमी ध्यान मग्न चतुर और शांत स्वभावी थे, उनको सम्यग्दर्शन हुअा था वे शुद्ध सत्ब व धर्म प्रवीण थे उन्होंने सब बन्धन नष्ट किये थे"। - नेमि प्रभु की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालते हुए डा. प्राणनाथ विद्यालंकार ने 19 मार्च 1935 के साप्ताहिक टाइम्स ऑफ इण्डिया नामक पत्र में काठियावाड से प्राप्त तांबे के प्राचीन शासन पत्र का विवरण प्रकाशित कराया था जो ई. पू. 1140 के लगभग का है । इसका सारांश है कि सुमेर जातीय बाबुल के रिवल्दियन सम्राट नेवुचेदनजर जो रेवानगर का अधिपति था, ने यदुराज की भूमि में रेवाचल के अधिपति नेमि प्रभु की भक्ति की थी और उनकी सेवा में दान पत्र अर्पित किया था। इस शासन पत्र पर नेवुचेदनजर की राजकीय मुद्रा अंकित है। श्री एस. एस. भट्टाचार्य ने अपनी पुस्तक 'विश्व की दृष्टि में जैन धर्म' में नेमिनाथ, उनके चचेरे भाई श्री कृष्ण तथा नेमि प्रभु की निर्वाण स्थली उर्जयन्तगिरि (गिरनार) को ऐतिहासिक सिद्ध करने के प्रबल प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। उपर्युक्त तथ्यों से नेमि प्रभु की ऐतिहासिकता में तनिक भी संदेह नहीं रह जाता है, वे जितने ऐतिहासिक हैं उतने ही लोकप्रिय भी रहे हैं। __ नेमि प्रभु और राजुल दोनों ने जो अभूतपूर्व उत्सगं किया वही उनकी लोकप्रियता एवं इतिहास में प्रसिद्धि का कारण रहा । भारतीय वाङ्मय की प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़, तमिल आदि सभी भाषाओं में उनको गौरव गाथा अंकित है। उनके उदात्त चरित्र एवं त्याग के अद्भुत साकार रूप ने प्रत्येक युग में कथाकारों, साहित्यकारों एवं कलाशिल्पियों को सदैव प्रान्दोलित किया और उनके मर्मस्थलों को झकझोरा तथा बाध्य किया कि उनकी लेखनी नेमि प्रभु तथा राजुलजी के तपः पूत पावन चरित्र को साहित्य की विभिन्न विधानों और भारत की विभिन्न भाषाओं में अंकित एवं चित्रित किया जावे । समुद्र विजय और शिवादेवी के लाडले नेमि प्रभु राजा उग्रसेन की लाडली राजूल से जब : परिणय रचाने के लिए दलबल सहित बारात लेकर उसके घर जा रहे थे कि मार्ग में पशुओं की करुण : पुकार सुनकर वे दया द्रवित हो उठे और तुरन्त ही सब कुछ छोड़ छाड़कर. जैनेश्वरीदीक्षा धारण कर Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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