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________________ 2-82 वह लोक दयावानों का है । जिस व्यक्ति के जीवन में दया नहीं है, जिसके विचार व व्यवहार में करुणा को धारा नहीं बहती वह उस लोक अर्थात् स्वर्ग का कभी अधिकारी नहीं हो सकता । यथा :“श्ररुलिल्लाक्कु अव्वुलगम् इल्ले, पोरुलिल्लावकु इब्लग मिल्लाकि मांगु ।” (fato 2517) ( अर्थात् यदि यह लोक निर्धन के लिये नहीं है, तो वह लोक निर्दयी के लिये नहीं है । ) इन पंक्तियों के सूक्ष्म अध्ययन विश्लेषण से पता चलता है कि कवि किस प्रकार तत्कालीन धनिकों को निर्धन लोगों के प्रति दयालु होने का उद्बोधन देते थे । वर्तमान समाजवाद के परिप्र ेक्ष्य में संत तिरुवल्लुवर का दो हजार वर्ष पूर्व किया गया वह उद्बोधन कितना प्रभावी प्रतीत होता है । सच्चा अहिंसक, साधु या पंडित वही है जो सभी प्राणियों को श्रात्मवत् मानता है । "श्रात्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्येति सः पण्डितः ।" अहिंसा का अर्थ है, सब जीवों के प्रति श्रात्मीयता का भाव बरतना और लेश मात्र भी किसी को कष्ट न पहुंचाना | 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की महनीय भावधारा अहिंसा की ही भावधारा है । किसी प्राणी का बध करना ही हिंसा नहीं, उसकी श्रात्मा को कष्ट पहुंचाना भी हिंसा ही है । जो लोग कर्म से नहीं वचनों से भी दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं, वे भी अहिंसा धर्म की अनादर ही करते हैं । कवि ने यहां तक कहा कि आग से होने वाला घाव भर जाता है, पर कटु वचनों का घाव कभी नहीं भरता । (तिरु० 1319) जो लोग इस प्रकार दूसरों को पीड़ा पहुंचाने में आनन्द का अनुभव करते हैं, उनके क्रूर व्यवहार के प्रति कवि के हृदय में अपार क्षोभ है तभी तो वह पूछता है : " तन्नुथिक्कु इन्नामै तानरिवान् एन्कोलो मन्नुयिक्कु इन्ना सेयल ?" -: Jain Education International (fato 3218) - ( अर्थात् जिस व्यवहार से स्वयं को दुःख ! पहुँचता हो, वही कष्टप्रद व्यवहार मनुष्य भौरों के साथ क्यों करता है ? ) महाभारत की ये पंक्तियां भी उपर्युक्त भावना को ही व्याख्यायित करती हैं। : "श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । श्रात्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।। न तत्परस्य कुर्वीत स्यादनिष्टं यदात्मनः । यद्यदात्मनि चेच्छेत् तत्परस्यापि चिन्तयेत् ॥ - ( अर्थात् जो बातें श्रात्मा के प्रतिकूल हों, उनका दूसरों के प्रति श्राचरण नहीं करना, यही धर्म का सर्वस्व है । इसे सुनो और समझो । जो तुम्हारे लिए अनिष्ट हैं, जिसे तुम अपने लिये किया जाना नहीं चाहते, उसे तुम दूसरों के लिये भी कभी न करो। जो तुम्हें इष्ट है, जिसे तुम प्रपने लिए चाहते हो, उसकी तुम दूसरों के लिए भी इच्छा करो । जब अहिंसा की ज्योति प्रखर होती है, तो घृणा का अंधकार मिट जाता है और जब अहिंसा की गंगा प्रवाहित होती है तो समता व मंत्री की फसल लहलहा उठती है । हिंसा के क्षेत्र में विशेष या वैर के लिए कोई स्थान नहीं है । हिंसा को आग प्रतिकार की भावना से भड़कती है । श्रतः प्रतिकार की भावना का उन्मूलन ही हिंसा का उन्मूलन है । और प्रतिकार का यह पहलू भी कितना भव्य और दिव्य है ! 'इन्नासेय् तारै प्ररुत्तल् अवरना नन्नयम् सेयुदु विड़ल " ( तिरु० 32:4) - ( अर्थात्, दुःख पहुंचाने वाले अपने विरोधियों के प्रति भी आपका उचित प्रतिकार यही होना चाहिए कि श्राप उनकी भलाई करके उन्हें लज्जित होने पर विवश कर दें ।) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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