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________________ 2-81 नामक स्थान में हुआ बताया जाता है। ये एक ऋषभदेव द्वारा प्रतिष्ठापित व वर्धमान महावीर उत्तम सद्गृहस्थ और कर्म से जुलाहे थे। इनका द्वारा प्रचारित जैनधर्म । संत तिरुवल्लुवर के गार्हस्थ्य जीवन बहत सुखी व संतोषपूर्ण था । कते समय श्रमण धर्म का प्रभाव तमिल जनता पर पड़ने हैं, इनकी पत्नी वासुकी साधु स्वभाव की सती स्त्री लगा था । वल्लुबर ने वैदिक धर्म का समर्थन नहीं थी। स्वयं वल्लुवर ने अपनी पत्नी की पतिभक्ति किया, क्योंकि उन्हें यज्ञों में धर्म के नाम पर ही की कई बार परीक्षा भी ली थी। यही कारण है कि जाने वाली पशु-बलि से घृणा थी। वैदिक यज्ञों के तिरुकुरल में पातिव्रत्य से सम्बन्धित कई कुरल भी हिंसात्मक स्वरूप का उन्होंने स्पष्टतः विरोध किया उपलब्ध होते हैं तिरुवल्लुवर के परवर्ती जैन है और अहिंसा वर्म की श्रेष्ठता को प्रतिष्ठित किया कवि इलंगोवड़िगल ने निम्नलिखित कुरल को है। यया :अपने महाकाव्य शिलप्पधिकारम् में बड़ी श्रद्धा के "मविसोरिन्दु मागिरम् वेट्टलिन् ओन्रन् साथ उद्धृत किया है : उयिरसेगुत्त उप्रणामै नन् । "दैयवम् तोळाअल् कोळ नन् तोळ तेळ वाल् कोल्लान् पुलाल मरुत्तानक ककूप्पि पेयएनए पेयुम् मळं ।" एल्ला उयिकम् तोळ म्।" (तिरु० 6/5) (तिरु० 26/9-10) —(अर्थात् जो स्त्री किसी देवता की पूजा -(अर्थात् हजार यज्ञों की तुलना में एक नहीं करती, पर प्रातः उठते ही अपने पति को जीव की भी.रक्षा कहीं अधिक श्रेयस्कर है। संसार पूजती है, वह सती नारी अकाल भी कहेगी तो उसी की करबद्ध पूजा करता है जो न जीव हत्या वर्षा हो जायेगी ।) करता है और न मांस भक्षण ।) तिरुकुरल मानवता का, अहिंसा धर्म के प्रचार संत तिरुवल्लुवर ने हिंसास्वत की एकांगिता का प्रादर्श ग्रंथ है। विश्व बंधुत्व और अहिंसा के का कभी समर्थन नहीं किया। उनका स्पष्ट मत आदर्शों को प्रतिपादित करने वाला यह वरेण्य प्रथ था कि हिंसा न तो करनी चाहिए, न करवानी समस्त मानव जाति के लिए वरदान सदृश है। चाहिए और न ही किसी रूप में हिंसा का समर्थन अहिंसा की भावना मानवता की मूल भित्ति है। ही करना चाहिए । तत्कालीन बौद्ध भिक्ष भिक्षा में सभी धर्मों ने इसकी महत्ता और उपादेयता को प्राप्त सामिष:पाहार को अनुचित नहीं मानते थे । अंगीकार किया है। संत तिरुवल्लुवर के जीवन पर तिरुकल्लुवर इस विचित्र अहिंसावादिता का दर्शन रूपी वृत्त का केन्द्र बिन्दु अहिंसा ही है। समर्थन नहीं कर पाये । प्रतः उन्होंने जीव हत्या के उन्होंने कहा-'पोन्राग नल्लदु कोल्लामैं', अर्थात् साथ-साथ मांस-भक्षण का भी विरोध किया। एक ही अच्छाई है, हिंसा न करना । उन्होंने अहिंसा उन्होंने मतसा, बाचा, कर्मपा महिमा का समर्थन को श्रेष्ठ धर्म घोषित किया और अनेकों कुरलों किया है। 'सब्वेइ जीवानि इच्छंति जीविन द्वारा अहिंसा के विभिन्न पहलुषों पर अपना दृष्टि- मरिज्जिउं' (दश. 8/10) यानी सब प्राणी जीवन कोण स्पष्ट किया है । उनकी इस अहिंसा आराधना चाहते हैं, मरना कोई. नहीं चाहता, इस सत्य को को देखकर ही विद्वान् लोग उन्हें जैन स्वीकार उन्होंने स्वीकारा और अपने जीवन में उतारा। करते हैं। अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में ही उन्होंने दया को __ भारत में अहिंसा को अत्यधिक महत्व देने अत्यधिक महत्व दिया। उन्होंने घोषित किया कि वाला एक ही धर्म रहा है और वह है भगवान् जिस प्रकार यह लोक धनवानों का है, उसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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