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________________ 2-50 उल्लिखित इस तिथि से नन्दराज का सम्बन्ध मगध में एक सिंहपुर का वर्णन है जो वहीं पर स्थित राज नन्द से जुड़ जाता है। प्रभिलेख में वणित (काश्मीर और अभिसार के समीप) जहां सिकन्दा यह नन्दराज मगधनरेश सुप्रसिद्ध महापद्मनन्द का बजिर नगर । लेकिन डा. एस. के. प्रायनर प्रतीत होता है। का कथन है कि वज्र एक महत्वपूर्ण जाति जिसका निवास सोन और गंगा नदियों के मन छठवें शासनवर्ष में खारवेल ने प्रजा को सुखी या बंगाल और मगध के बीच में था। वाला रखने के लिये अनेक कार्य किये । उसने राजधानी या राढ़ा के दो प्रशासनिक खण्डों-वज्जभूमि माँ में रहने वाले लोगों को अनेक प्रकार की सुविधायें सुन्नभूमि में से एक था। खारवेल की महिषी इसी। दी तथा ग्रामीण जनता के कल्याण के लिये करों वज्ज भूमि की राजकुमारी थी । यह वज्जभूमि जिस में छूट दी। इन कार्यों हेतु राजकोष से कई लाख गंगा और सोन घाटी में स्थित कलिंग कहा गया । मुद्राएं व्यय की गयीं। डा० जयसवाल20 ने इसी या तो कलिग राज्य का एक भाग थी या फिर प्रसंग में खारवेल द्वारा रारेसूय यज्ञ करने का वर्णन कलिंग की सीमाओं पर स्थित थी। इस तथ्य की किया है, किन्तु डा० बडुमा यहाँ राजसूय के पुष्टि सिलप्पधिकारम् और मणिमेखलाइ नामको स्थान पर राजसरि (राज्यश्री या समृद्धि का बढ़ाना) तामिल जैन महाकाव्यों से भी होती है । सोनघाटी में पाठ शुद्ध मानते हैं। खारवेल के जैन मतावलम्बी वज्रदेश की विद्यमानता का प्रमाण तामिल साहित्य होने के कारण यही अर्थ अधिक उपयुक्त और में वर्णित महान् चोल नरेश करिकाल की विजयाँ संगत प्रतीत होता है । से भी मिलता है । कहा गया है कि करिकाल उत्तर * राज्यकाल के सातवें वर्ष में उसकी गृहवती की ओर गया और उसने वच, मगध तथा माला वज्रधर (कुलवाली) धृष्टि नामवाली गृहिणी ने देशों से मेंटें स्वीकार की। कुमार को जन्म देकर मातृपद प्राप्त किया। यहां पर युवराज के उत्पन्न होने का उल्लेख किया गया दक्षिण में विजय प्राप्त करने तथा वहाँ अपनी है। मातृत्व प्राप्त करने वाली रानी को वज्र कुल- स्थिति सुदृढ़ करने के बाद खारवेल ने आठवें या वाली कहा गया है। जिससे अनुमान होता है कि में विशाल सेना द्वारा गोरथगिरि को नष्ट कर यहां रानी के मातृकुल का संकेत दिया गया है। राजगृह पर आक्रमण किया। उसके इस कमी इस संदर्भ में डा० जायसवाल के अनुसार वज्र सम्पादन शब्द को सुनकर यूनानी राजा डिमिय या वजिर को अभिज्ञान सिन्ध नदी के दूसरे तट पर अपनी सेना और वाहन (भय से) छोड़कर मथुरा स्थित सिकन्दर के बजिर नगर से किया जा सकता है। भागने को विवश हुआ । गया से पाटलिपुत्र के पन्द्रहवीं पंक्ति में रानी के पूर्व सिंहप्रय (सिंहप्रस्थ) प्राचीन मार्ग पर गोरथगिरि (गया के 20 किलो शब्द का उल्लेख है। प्रस्थ का अर्थ नगर है । यहां मीटर उत्तर की स्थित बराबर पहाड़ियां) स्थित यह उल्लेख करना मनोरजक होगा कि महामारत23 था। तीसरी शती ई. पू. में इसे 'खलटिक पहा NNNNN 20. ज. बि. उ. रि. सो. खण्ड 4, पृ० 376 21: अोल्ड ब्राह्मी इन्स्क्रिप्सन्स 22. ज. नि० उ० रि० सो०, खण्ड 4, पृ० 377-78; एरियन, 4'17. 23. सभापर्व 24. सम कन्द्रीब्यूसन्स प्राफ साउथ इण्डिया टु इण्डियन कल्चर, पृ० 33, 75, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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