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________________ 2-39 हाल में उत्पन्न प्रभाचन्द्र का लालन-पालन, शिक्षा प्रतियों लिखकर दान कराई। इनका पट्टाभिषेक श्रीक्षा उत्तम प्रकार से हुए थे । उनका मूल नाम सम्मेदाचल (सम्मेद शिखर) पर हुआ था जहाँ पाइदजन था और वह यथा नाम तथा गुण थे। राजस्थान से एक विशाल संघ तीर्थ यात्रार्थ गया परंभ से ही बड़े विवेकशील, सबका उपकार करने हुआ था। इनकी गृहस्थ आम्नाय बड़ी विस्तृत थी, आले, जिनधर्म का सम्यक् प्राचरण करने वाले, विशेषकर राजस्थान के विभिन्न भागों के निवासी वान, शीलवान और धर्मात्मा थे। राजाओं बघेरवाल और खण्डेलवाल श्रावक इनके बड़े भक्त से वैभव का परित्याग करके इन्होंने स्वगुरू थे। कई रजवाड़ों के राजाओं एवं अन्य राजपुरुषों द्वारक जिनचन्द्र से मुनि दीक्षा ली और उनके द्वारा भी ये सम्मानित हुए । इनका शिष्य रान्त उनके पट्टधर बने । पट्टावलियों, ग्रन्थ- परिवार भी विशाल था। मंडलाचार्य धर्मचन्द्र स्तियों, मूर्ति लेखों आदि में उनकी प्रभूत प्रशंसा इनके पट्ट शिष्य थे जो इनके उपरान्त चित्तोड़पट्ट स्त होती है, यथा-न्याय व्याकरण निष्णात्- पर आसीन हुए। मामेरपट्ट के मंडलाचार्य चन्द्रकीर्ति न्दब्रह्म-प्राच्यादिदिग्विजयी जैनप्रतिष्ठाकृते- ब्रह्मचारी वीडा, ब्र० बूचा, . भोजाजोगी म्मेदगिरी सुवर्णकलशै : पट्टाभिषेककृत-गणेन्द्र लाला वर्णी, ब्र० रत्नवर्णी, प्रायिका पद्मश्री, ०सि० भास्कर, I, 4 पृ० 81-84) श्री आर्यिका पार्वतीबाई प्रादि इनके सुयोग्य त्यागी खिमचन्द्रदेव के पट्टधर भट्टारक श्रीमदभिनव शिष्य थे, जो इनके धर्म प्रभावना के कार्यों में सतत् प्रमाचन्द्रदेवः तैनिज निज भताखर्वगर्वपर्वतारूढ़-सर्व सहयोगी थे। इन्हीं के समय में, इनके शिष्य पार्वाकादि परवादि-मदांधसिंधुरसिंहायमान-विहि- लालावर्णी की प्रेरणा से मुनि नेमीचन्द्र गुर्जर देश प्राचार्य पदस्थापनाय-सकल भव्य चेतश्चमत्कारि- से चित्तोड़ पधारे और यहाँ धर्मचन्द्र, अभयचन्द्र प्रबंजीवोपकारि-चारूचारित्रचारि-यथोक्तनग्नमुद्रा- आदि के आग्रह पर केशववर्णीकृत कर्णाटकी बारी समस्त विद्वज्जन मनोहारि-श्रीमन्निग्रन्था- (कन्नड़ी) वृत्ति का अनुसरण करते हुए गोम्मटसार प्रार्यवर्य- नि:शेषमिथ्यात्वतमस्कांड-खंडनोंच्चंडिम- की 'जीवतत्वप्रदीपिका' नाम्नी संस्कृत टीका की कांड मार्तण्ड मंडलायमान, आदि, (प्रशस्ति रचना की थी, जिससे प्रसन्न होकर आचार्य, प्रह जयपुर, पृ० 89-पुष्पदन्तकृत प्रादि पुराण अभिनव प्रभावचन्द्र ने उन्हें 'सूरि' (प्राचार्य) पद ही दानप्रशस्ति), 'पूर्वाचल दिलमणि षट्तर्कताकिक प्रदान किया था। गमणि-वादिमदिद्वपसिंह --विवुधवादिमददलनदिकंदकुदाल-सकलजीवअंबुध प्रतिबोधक' (वही ऐसा लगता है कि अपने अन्त के कुछ पूर्व ही 177) 'देवागमालंकृति, प्रमेयकमलमार्तण्ड ___ इन्होंने आमेर, नागौर आदि में कई शाखापट्ट का जैनेन्द्रादिक लक्षणशास्त्रों के ज्ञाता, वादी स्थापित कर दिये थे जिन्हें अपने विभिन्न शिष्यों भविदारणक केशरि' इत्यादि । को सौंप दिया था। किन्तु प्रारम्भ में ये शाखापट्ट चित्तौड़ पट्ट के ही अधीन रहे अतः चित्तौड़ में इनके उपरोक्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि यह पट्टधर भट्टारक धर्मचन्द्र मंडलाचार्य कहलाये । विषारी भट्टारक वेष में न रहकर दिगम्बर मुनि भट्टारक धर्मचन्द्र का पट्टकाल लगभग 1524-46 ई. के में रहते थे, बड़े विद्वान, शास्त्रमर्मज्ञ, न्याय रहा। स्वगुरु के जीवनकाल में ही ये प्रतिष्ठाएँ लों के विशिष्ट ज्ञाता, समर्थ वादी एवं शास्त्रार्थी कराने लगे थे क्योंकि 1514 और 1.20 ई0 के र प्रभावशाली धर्मोपदे थे। इन्होंने अने भी इनके कुछ मूत्तिलेख मिले हैं । अपने पट्टकाल में प्रतिष्ठाएं कराई और पनेक शास्त्रों का भी इन्होंने अनेक प्रतिष्ठाएं कराई तथा अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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